(लहक का मुक्तिबोध पर मई जून 2017 विशेष अंक का संपादकीय आलेख , जिस
पर कई कवि-लेखक-आलोचक को गहरी आपत्ति है।)
मत सोखो हिंदी का पानी
क्या पलटकर भिड़ने का यह मौका नहीं ?
मुक्तिबोध और मुहाने का आदमी
लेखक-दार्शनिक सार्त्र ने कहा है-‘द अदर इज हेल' अर्थात दूसरा नरक है। जब हम दूसरे को नरक
कहते हैं तो खुद व खुद स्पष्ट होता है कि पहला स्वर्ग जैसा है या पूरा का पूरा स्वर्ग
ही है। यह धारणा ही किसी में तब पैदा होती है जब यह पता चले कि दूसरों में वैसी चीजें
नहीं हैं जैसी पहले में हैं। यह अलग विशेषता है जिसके कारण वह औरों से जुदा है और दूसरे
पाय नरक जैसे हैं। न भी हो तो उस तरह की अनुभूति महसूस की जाती है या की जा रही होती
है, तभी आप दूसरों के लिए यह शब्द प्रयोग करते हैं कि वह वैषम्य
है।
मतलब,
वो जो रईस हैं
अपने लिए नफीस हैं
दरअसल यह मामला चित्त और अचित्त का है, जिसके
आधार पर आप किसी को नरक और अपने को स्वर्ग जैसा महसूस करते हैं। अचित्त जितना वेगवान
होगा, आदमी उतना ही ‘अस्थिर' मानस और चित्त जितना सूक्ष्म होगा, आदमी उतना ही
‘स्थिर' मानस का होगा। हिंदी साहित्य में समझने
के लिए हम चित्त और अचित्त के दो पमुख कवियों को ले सकते हैं -निराला और मुक्तिबोध
(ये वाद, विवाद, संवाद का
प्रश्न है, असहमति पर आपके विचार का स्वागत है)। निश्चित रूप से मुक्तिबोध ताउम्र निराला से न सिर्प कन्नी काटते रहे बल्कि
लिखने से भी भयंकर रूप से बचते रहे। संभव है कि मुक्तिबोध यदि निराला की तरफ मुड़ते
तो ‘महा-निराला' हो जाते। पर पसंद अपनी-अपनी। मुक्तिबोध का झुकाव प्रसादजी की तरफ हुआ और इतना हुआ कि पूछिए मत
‘कामायनी : एक पुनर्विचार' तक पहुंच गये। पूरी किताब में मुक्तिबोध प्रसादजी को मनु सिद्ध करने पर तुले
हैं और बार-बार यह कहते हुए थकते नहीं कि प्रसाद ही मनु हैं।
अब हम थोड़ा समझने की कोशिश करें कि चित्त-अचित्त का जो मामला है वह भारतीय दर्शन में किस रूप में
है। माण्डूक्य उपनिषद् में द्वैत को अद्वैत का भेद अथवा कार्य बताया गया है। शंकर ने
इसका भाष्य करते हुए लिखा है- “अद्वैत परमार्थ है और क्योंकि
द्वैत यानी नानात्व उस अद्वैत का भेद अर्थात उसका कार्य है, इसलिए
द्वैत उसका भेद कहा जाता है। वैसे तो ब्रह्म विश्वव्यापी है, परन्तु निर्जीव पदार्थ, पशु-पक्षी,
वनस्पतियां उसे नहीं जानते।
उसका ज्ञान केवल मनुष्य को होता है इसलिए कि मनुष्य इन्द्रियों
का निग्रह करके ध्यान द्वारा उसका साक्षात्कार करता है। मानव शरीर के बिना आत्मज्ञान
नहीं हो सकता।'' शरीर, हृदय, पाण इनका आपसी संबंध बताते हुए शंकर ने मुण्डक उपनिषद् के एक मंत्र के भाष्य
में लिखा है-“जिस शरीर में पाणवायु, पाण-अपान आदि भेद से पांच प्रकारका होकर सम्यक रीति से प्रसिद्ध हो रहा है,
उसी शरीर में हृदय के भीतर वह ‘पित्त' द्वारा जानने योग्य है।'' इसी पसंग में शंकर प्रश्न करते
हैं-वह किस प्रकारजानने योग्य है? और उत्तर
देते हैं-“ दूध जिस प्रकारघृत से और काष्ठ जिस प्रकारअग्नि से
व्याप्त है, उसी प्रकारजिससे पाण यानी इन्द्रियों के सहित पजा
के समस्त पित्त-अंतकरण व्याप्त है। फिर लोक शब्द का स्पष्ट प्रयोग
करते हुए उन्होंने लिखा है-‘सर्व हि पजानामवन्त करण चेतनावत्
पसिद्धं लोके', अर्थात “लोक में पजा के
सभी अंतकरण चेतनायुक्त पसिद्ध है।''
निराला की कुछ पंक्तियां देखिएः “ऊपर
बर्प पिघली है/ नीचे
नदी चली है/ सख्त तने के ऊपर नर्म कली है/ इसी तरह
हर दिया गया हूं/ बाहर मैं कर दिया गया हूं/
अंदर पर भर दिया गया हूं।''
मुक्तिबोध की ‘अंधेरे में ' की कुछ पंक्तियां देखिएः
हाय! हाय! हाय!
तॉल्स्तॉय
कैसे मुझे दीख गये
सितारों के बीच-बीच
घूमते व रुकते
पृथ्वी को देखते।
शायद तॉल्स्तॉय-नुमा...
एक अन्य पैरा देखें :
मेरा सिर गरम है,
इसलिए भरम है।
सपनों में चलता है आलोचन,
विचारों के चित्रों की अबलि में चिन्तन।
निजत्व-माफ है बेचैन,
क्या करूँ, किससे कहूँ,
कहाँ जाऊँ, दिल्ली या उज्जैन?
वैदिक ऋषि शुनशेप के
शापभ्रष्ट पिता अजीगर्त समान ही
व्यक्तित्व अपना ही, अपने से खोया हुआ
वही उसे अकस्मात मिलता था रात में,
पागल था दिन में
सिर-फिरा विक्षिप्त मस्तिष्क।
प्रश्न उठता है कि मुक्तिबोध की तरह यही कविता हिंदी का यदि दूसरा कवि
लिखता तो आलोचक मुक्तिबोध की क्या राय बनती? क्या
यह समझना जरूरी नहीं है कि फैंटेसी का सहारा आखिर कोई भी रचनाकार लेता है तो क्यों
लेता है? क्या वह रचनाकार अपने जमाने से कटा होता है या खुद को
काट लेता है? क्या यह भी प्रश्न नहीं उठता है कि उनके समकालीन
कवियों में से अधिकांश की स्थिति क्या बहुत अच्छी थी? यदि नहीं,
तो फिर अपनी परेशानियों और परिस्थितियों के लिए समाज व देश को दोषी क्योंकर
ठहराना है :-
मुक्तिबोध खुद कहते हैं :-
अब तक क्या किया
जीवन क्या जिया
ज्यादा लिया और दिया बहुत-बहुत
कम
मर गया देश, अरे जीवित रह गये तुम! (अंधेरे में)
क्या इन पंक्तियों में हम मुक्तिबोध से नहीं पूछ सकते हैं कि औरों की तुलना
में आपने बहुत ज्यादा लिया और दिया बहुत कम। भला इतनी शिकायत तो हिंदी का कोई कवि नहीं
करता है, जितना कि मुक्तिबोध करते हैं जबकि उनकी पृष्ठभूमि और कवियों
की तुलना में न सिर्प अच्छी थी बल्कि बहुत अच्छी थी।
उदाहरण के लिए मुक्तिबोध के बड़े पुत्र रमेश मुक्तिबोध सामयिक सरस्वती
के मुक्तिबोध शताब्दी विशेषांक में अपने लेख ‘परिवार
के बांरे में कुछ बातें' में कहते हैं öा“गोपाल जी का अपने लाडले प्यारे पोते गजानन पर असीम
स्नेह था। जिस गांव-कस्बे में उनका स्थानान्तरण हो जाता,
वहाँ उन्हें बुला लिया करते ताकि ज्यादा से ज्यादा समय पोते के साथ व्यतीत
कर सकें। उनके सत्कार में मेवा-मिठाई पेश किए जाते। ऐसे ही अनेक
अवसर पर उन्हें मिठाई दी गई। उन्होंने फिर मांगी, दोबारा दी गई।
फिर हठ करने पर मिठाई का पूरा दोना, दादाजी ने किंचित अप्रसन्न
होकर उनकी ओर बढ़ा दिया। पोते ने भी बाल सुलभ प्रसन्नता से शेष मिठाई पर हाथ साफ किया।''
कुछ आगे की पंक्तियां - ा“वे माधवराव गोपालराव मुक्तिबोध तथा पार्वतीबाई मुक्तिबोध की तीसरी सन्तान थे।
पहली दो सन्तानों के शैशवकाल में काल-कवलित होने के कारण उनका
लालन-पालन विशेष जतन और माता-पिता,
दादा के अतिरिक्त स्नेह से हुआ। बाहर उन्हें सम्भालने के लिए अर्दली
थे तो घर में मुक्तिबोध जी की नानी थीं। नानी उन्हें लिए कई-कई
घन्टों तक लगातार दुलारती। संध्या में अर्दली उन्हें बाबा गाड़ी में घुमाने ले जाते।
बड़े लाड़-प्यार से उन्हें रखा गया। शरतचन्द्र जी उनसे चार साल
छोटे थे। इस चार साल की अवधि में उन्हें अबाध्य वात्सल्य और प्रेम मिलता रहा। किसी
प्रकार के अभाव की स्थिति नहीं थी। इस कारण उनकी बाल सुलभ मांगें पूरी होती रहीं। इसका
यह परिणाम हुआ कि बचपन से ही वे कुछ हठी हो गए और आगे चलकर उनका स्वभाव जिद्दी हो गया।
आगे देखिए- “उज्जैन के माधव कालेज से सन
1930 में ग्वालियर बोर्ड की परीक्षा में असफल रहने के बाद सन
1931 में सफलता हासिल की। घर में उत्सव मनाया गया। मुक्तिबोध जी की मां
-ताई ने उज्जैन के मोहल्ला पानदरिबा स्थित मन्दिर में मूर्ति की खास
आराइश कर पूजा सम्पन्न करायीं। 1935 में नागपुर विश्वविद्यालय
से एम.ए. किया। कोई अभाव नहीं था।''
यह सब लिखने के पीछे हिंदी की गुलामी प्रकृति-प्रवृत्ति के पोषक बौद्धिक लोगों से यही पूछने का मकसद
है कि मुक्तिबोध को उछालकर हम क्या आसमान पर चढ़ा देंगे? बिना
सीढ़ी के? तो समझ रखें आप भी गिरेंगे और मुक्तिबोध भी।
सम्भव है कि मध्यवर्गीय हिंदी साहित्य में मीडियाकर साहित्यकार ही पैदा
होते रहे हैं, लेकिन इसका मतलब यह थोड़े ही है कि हम केदारनाथ अग्रवाल, भवानी प्रसाद मिश्र, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना, नागार्जुन, हरीश भदानी, नरेश मेहता,
गिरिजा कुमार माथुर, त्रिलोचन, रघुवीर सहाय व अन्य को पर्दे के पीछे करने के लिए सिर्प एक नाम को लेकर
‘हुआ-हुआ' करें। क्या यह
उचित है? अब विचार करना बहुत जरूरी है कि सिर के बल खड़े हिंदी
साहित्य को कैसे पैर के बल खड़ा किया जाए! जाने-माने लेखक कांति कुमार जैन कहते हैं कि पैर के बल खड़ा करने के लिए जरूरी है
कि राग-द्वेष न हो। विश्वविद्यालय और कॉलेज के प्रोफेसरान तो
यह काम करने से रहे। मतलब कैंपस से बाहरी लोगों का हस्तक्षेप जरूरी हो गया है।
अभी पिछले दिनों ही मैंने फेसबुक पर कुछ पंक्तियां चर्चा के लिए लिखी थीं, जो इस प्रकार हैं- ा“न केदार ‘अग्रवाल'/ा न भवानी
‘प्रसाद मिश्र' / न ‘सक्सेना'
सर्वेश्वर दयाल ा/ न भदानी ‘हरीश'/ केवल मुक्तिबोध की कहानी/ ये है कैसी कारस्तानी/ मत सोखो हिंदी का पानी
/ बोलो-बोलो कुछ तो बोलो / नागा बाबा की इन्दुरानी।''
इसे लेकर फेसबुक पर काफी विवाद हुआ। दर्जनों लोगों ने अपनी प्रतिक्रियाएं
दीं। विवाद के केन्द्र में यही बिन्दु था कि वे औरों से अलग हैं और इसीलिए सबसे जुदा
हैं। क्या यह कह देने भर से स्पष्ट हो जाता है कि मुक्तिबोध की कविताएं सामयिक रूप
से प्रासंगिक हैं? क्या धरती पर कभी भी ऐसा समय रहा
है कि मानव जीवन बिना विसंगतियों के हों? कभी भी कोई ऐसा युग? कोई भी यह बताने को तैयार नहीं है, प्रकाश डालने को भी राजी नहीं कि
देश की आजादी के समय में जब आम जनता मर-मिट रही थी, वहां कवि क्यों अपनी कविता में आजादी को लेकर कुछ भी नहीं लिखता है?
यह मैं नहीं, बल्कि आदरणीय मैनेजर पाण्डेय अपनी
पुस्तक ‘मैं भी मुँह में जबान रखता हूँ,' (समय के साथ सार्थक संवाद : अरुण प्रकाश से साक्षात्कार
) में कहते हैं- “इस देश के इतिहास में दो अत्यन्त
निर्णायक दुर्घटना हुई थी।
पहली घटना देश के विभाजन की तथा दूसरी बाबरी मस्जिद के विध्वंस की।''
मैं पहली दुर्घटना के पसंग में हिंदी कवियों की प्रतिक्रिया और संवेदनशीलता
के बारे में सोचता हूं तो काफी चकित हो जाता हूँ कि उस समय छायावाद के तीन बड़े कवि
जीवित थे- महाकवि निराला, सुमित्रानन्दन पंत
और महादेवी वर्मा। उनमें से दो -निराला और पंत रचनाशील भी थे।
महादेवी वर्मा ने कविता लिखना लगभग बन्द कर दिया था। पर इन दोनों कवियों (पंत और निराला के काव्य-संसार में वह महान ट्रेजडी दर्ज
भी नहीं है। उसी समय हिंदी में पांच बड़े प्रगतिशील कवि भी कविता लिख रहे थे-
नागार्जुन, मुक्तिबोध, त्रिलोचन,
शमशेर बहादुर सिंह और केदारनाथ अग्रवाल। इन पांचों के यहां भी कोई महत्त्वपूर्ण
कविता देश के विभाजन पर नहीं मिलती। हिंदी के जिस कवि ने उस घटना के बारे में एक नहीं
ग्यारह कविताएं लिखी थीं, वह अज्ञेय थे।
फेसबुक पर मैंने यह भी लिखा था कि अपनी कविताओं की उपेक्षा के चलते मुक्तिबोध
आलोचक बने। लेखक कनक तिवारी ने प्रतिक्रिया दी कि ‘कोई
मूर्ख ही ऐसी बात कह सकता है।' फिर मैंने लिखा कि भवानी प्रसाद
मिश्र मुक्तिबोध की कविताओं को अगम्य और समझ से परे कहते हैं- इस पर कनक तिवारी ने पूछा ा कहां-कहां, कब कहा। मैंने किताब का नाम और पेज संख्या भी बता दी। आप भी देखें कि भवानी
भाई, कवि प्रेमशंकर रघुवंशी की पुस्तक ‘टिगरिया का लोक देवता', भवानी प्रसाद मिश्र, संस्मरण में पेज नं. 145 में मुक्तिबोध के बारे में क्या
कहते हैं-ा “कुछ नए कवियों के सरताज गिने
जाने वाले मुझे पंक्तियों में भी नहीं बांध सके। मुक्तिबोध को मैं मध्यप्रदेश के नाते
जानता था, कभी-कभी उनकी कविताएं पढ़ी थीं,
एकाध बार बात भी हुई थी। वे थोड़ी लम्बी बीमारी भोगकर दिल्ली लाए गए
तो वे ही लोग जो उनकी उपेक्षा करते थे, नए कवि की सत्ता द्वारा
उपेक्षा के विरोध में झण्डा उठाकर खड़े हो गए और सत्ता ने उनके इलाज की अच्छी से अच्छी
व्यवस्था की। मगर भाई मुक्तिबोध बचे नहीं। तब उनकी कविता और व्यक्तित्व की चर्चा का
चलन हो गया। उनका एक अच्छा सा संग्रह भी ‘चाँद का मुँह टेढ़ा
हैं' ज्ञानपीठ प्रकाशन ने लगभग डेढ़ वर्ष बाद निकाला। उसकी भी
काफी प्रशंसात्मक और विश्लेषणात्मक समीक्षाएं छपीं। मैंने उस संग्रह को पढ़ने की कोशिश
नहीं की, किन्तु जिस प्रकार प्रसाद की कामायनी मुझे कभी नहीं
छू पाई या पंत का लोकायतन मेरे निकट लगभग
अपठ्य रहा, करीब-करीब
उसी हद तक मुक्तिबोध मेरे लिए अगम्य बने हुए हैं। ''
गौर फरमाइए, तार सप्तक में प्रमुख कवि के रूप
में अज्ञेय मुक्तिबोध को जगह भी देते हैं और यह भी कहते हैं- “अब जब आपने मुक्तिबोध की और अनगढ़पन की बात कही तो मैं कहूँ कि मुक्तिबोध में
यह अनगढ़पन इतना बना न रह गया होता अगर वास्तव में उनकी जो बेचैनी थी वह कवि कर्म को
लेकर हुई होती या कि कविता को लेकर हुई होती। उनमें एक बड़ा ईमानदार सोच तो है,
उनकी चिन्ताएं बड़ी खरी हैं, शायद यही वजह है कि
वह समर्थ कवि नहीं बन पाए। उनकी एकाध को छोड़कर कोई भी कविता पूरी नहीं है।''
अब यह देखिए कि अपने हिंदी के दोनों महारथी अज्ञेय और मुक्तिबोध हिंदी
लेखकों के मानस को किस तरह देखते हैं। ऐसा सोचने और कहने में दोनों एक जैसे सगा-सहोदर लगते हैं। पहले अज्ञेय की पुस्तक ‘सर्जना और संदर्भ' के अध्याय ‘परिस्थिति
और साहित्यकार' की शुरुआती लाइनें देखिए ö अब से पांच साल पहले एक फांसीसी मित्र से हिन्दी साहित्य सम्बन्ध में बात करते-करते सुनने को मिला ा“देखा है तुम्हारा हिन्दी साहित्य!
नब्बे प्रतिशत हिंदी लेखक अपनी बीवी की कहानियां लिखते हैं।ा''
एक और मनचले साथी बैठे सुन रहे थे। मजाक का अवसर देखकर बोले,
‘और बाकी दस'?
मैंने फांसीसी मित्र पर आक्षेप करते हुए कुछ कटुता के साथ कहा, “ये कहेंगे कि बाकी दस फीसदी कहानी अपनी लिखते हैं और
छापते हैं बीवी के नाम से।ा'' पांच वर्ष पहले की यह बातचीत आजकल
बार-बार याद आती है।
“आखिर क्यों हिंदी के साहित्यकार हवाई किलों में रहते हैं
और अपने स्वप्नलोकों का आरोप अपने परिवार पर लगाया करते हैं? अपनी स्त्राr का आदर्शीकरण, स्त्राr
के नाम पर कहानियाँ छपा कर लेखिका (संस्कृत)
स्त्राr पाने की इच्छा की पूर्ति (विश फुलफिलमेन्ट) ा ये सब प्रवृत्तियाँ इस प्रकार समझी
जा सकती हैं, लेकिन ये सब हमारे साहित्य में व्याप्त होने वाली
पुंठा का ही एक पहलू है और इस समय हम इस पहलू पर विचार करना नहीं चाहते।''
आगे कहते हैं कि प्रेमचन्द के उपन्यास ‘सेवासदन'
और ‘प्रेमाश्रम' के यथार्थवाद
में (विशफुल थिंकिंग) का एक हल्का सा परदा
है, दोनों में संस्थाएं समस्या के हल के रूप में पेश की गई हैं।
वे वास्तव में तर्प सिद्ध सुधार चेष्टा का परिणाम नहीं, एक अस्पष्ट
अपर्याप्तता की पूर्ति करने के लिए खड़े किये गये स्वप्न हैं ा‘यूटोपिया' हैं।
जैनेन्द्र कुमार में भी हम उपर्युक्त क्रिया के उदाहरण पा सकते हैं। ‘परखा' के भावाक्रान्त आदर्शोन्मुख
यथार्थवाद के बाद सुनीता जैसी समस्या - उपन्यास की रचना जिसमें
समस्या यथार्थ जीवन की नहीं, सम्पूर्णतया कल्पित (हाइपोथेटिक) है और जिसे व्यंजित करने वाले पात्र भी यथार्थ
नहीं, संश्लिष्ट (सिंथेटिक) और काल्पनिक (हाइपोथेटिकल) हैं।
अब देखिए मुक्तिबोध अपनी पुस्तक ‘नये
साहित्य का सौन्दर्यशास्त्र' के ‘जनता का
साहित्य किसे कहते हैं' अध्याय में कहते हैं- “यह छोटी सी बात हमारे हिन्दुस्तान के पिछड़ेपन को ही सूचित करती है। स्वतंत्र
होने पर भी हमारा देश आर्थिक दृष्टि से अभी गुलाम है। औपनिवेशिक देश के बुद्धिजीवी,
निश्चित ही, उतने ही पिछड़े हुए हैं जितना कि उनका
अर्थतत्र। यूरोप में एक-एक विचार की प्रस्थापना के लिए बड़ी-बड़ी कुर्बानियाँ देनी पड़ी हैं। लेकिन, हिन्दुस्तान
को पका-पकाया मिल रहा है। चूंकि उसके पीछे उद्योग नहीं है,
इसलिए बहुत से विचार हजम नहीं हो पाते। शरीर में उनका खून नहीं बन पाता।
आंखों में उनकी लौ नहीं जल पाती। मस्तिष्क में उनका प्रकाश नहीं फैल पाता। इसलिए विचारों
में बचकानापन रहता है और कार्य विचारों का अनुसरण नहीं कर पाते। यह बात हिन्दुस्तान
के औपनिवेशिक रूप पर ही हमारी दृष्टि ले जाती है।ं''
आगे कहते हैं- “किन्तु यह परिष्कार साहित्य के माध्यम
से तभी संभव है जब सुनने वाले या पढ़नेवाले की अवस्था स्वयं शिक्षित हो। यही कारण है
कि मार्क्सवाद का दास कैपिटल, लेनिन के ग्रन्थ, रोम्यां-रोला, तोल्स्तॉय और गोर्की
के उपन्यास एकदम अशिक्षित और असंस्कृतों के न समझ में आ सकते हैं, न वे उनके पढ़ने के लिए होते ही हैं। जनता का साहित्य का अर्थ, जनता के लिए साहित्य से है और वह जनता ऐसी है जो शिक्षा और संस्कृति द्वारा
कुछ स्टैंडर्ड प्राप्त कर चुकी हो।ं''
देखिए,
मुक्तिबोध स्वयं अपनी पुस्तक ‘समीक्षा की समस्याएं'
में कहते हैं कि ‘सच्चा लेखक हमेशा नौसिखिया होता
है। केवल नौसिखियापन को सार्थक बनाना आवश्यक है।' तो मुक्तिबोध
महोदय मैं भी जितने सवाल उठा रहा हूँ, वे सभी एक नौसिखिया के
ही हैं।
तो अब सुनिए, हम क्या कह रहे हैं कि आपके चिंतन
की पूरी भूमि पाश्चात्य है। तो क्या आप
पश्चिम की शिक्षित, सुसंस्कृत, ज्ञानवान जनता के लिए ‘अन्धेरे में' कविता में तॉलस्तॉयनुमा बिम्ब तैयार करते हैं?अगर ऐसी
बात नहीं होती तो निराला की तरह कविता लिखते, जैसे
-
वह तोड़ती पत्थर
देखा उसे मैंने इलाहाबाद के पथ पर
वह तोड़ती पत्थर।
कोई न छायादार
पेड़ वह जिसके तले बैठी हुई स्वीकार
श्याम तन, भर बंधा, यौवन
नत नयन, प्रिय कर्मरत मन
गुरु हथौड़ा हाथ
करती बार-बार प्रहार
सामने तरु मालिका अट्टालिका, प्राकार।
भारतीय जनता को लेकर निराला की लिखी कविता आपने देखी मुक्तिबोध साहब! अब देखिए भवानी भाई की भारतीय जनता के लिए
1937 में ‘गांव' शीर्षक से
लिखी कविता -
तंग गलियों में कहीं बच्चे खड़े हैं,
लाल हैं पर भाग पत्थर से लड़े हैं,
धूल के हीरे नहीं अब धूल हैं ये
फूल जंगल के नहीं अब धूल हैं ये
रूप इनका आंख में गड़-सा रहा
है
और ढांचा प्राण पर पड़-सा रहा
है
हाय रे, बचपन तलक सुख से न बीता
वाह रे, दारिद्रय तूने खूब जीता
धूप चढ़ती है कि पनघट जम गया है,
एक छोटा-सा कुआं कम गया है
तरुणियां हैं घाट पर झीमी झुकी हैं
और वधुएं हैं कि घूंघट में लुकी हैं
हंस कभी पड़ती कभी कुछ बोलती है।
यह हंसी दुख में सनी है खोलती है।
नागार्जुन की भारतीय जनता के लिए लिखी कविता ‘स्वदेशी शासक ' की पंक्तियां देखिए-
ा
बात बनाओ
करो बहाने
गप्पें मारो
लो जंभाइयां
ताजा-ताजा माल उड़ाओ
चांदी का मुंह,
कंचन की है जीभ तुम्हारी
चरण तुम्हारे गगन बिहारी
राजाओं के राजा हो तुम
हीरा-मोती-मणि माणिक
का भस्म तुम्हारी शक्ति बढ़ाता
चाटुकार है आसमान पर तुम्हें चढ़ाता
जा-जाकर दिल्ली लन्दन
बुर्जुआ शिष्टता सीख-सीखकर
अपनी सामन्ती संस्कृति में
पश्चिम के विज्ञानवाद की छौंक मारकर
वायुयान से वापस आओ
हमें सीख दो शान्ति और संयत जीवन की
अपने खातिर करो जुगाड़ अपरिमित धन की
बेच-बेचकर गांधी जी का नाम
बटोरो वोट
हिलाओ शीश
निपोड़ो खीस
बैंक-बैलेन्स बढ़ाओ
राजघाट पर बापू की वेदी के आगे अश्रु बहाओ,
तैरो घी के चहबच्चों में, अमरित
की हौदी में बाबू खूब नहाओ
हमें छोड़ दे राम भरोसे
जियें तो भले, मरें तो भले
क्या बिगड़ेगा अजी तुम्हारा !
अब मुक्तिबोध की कुछ कविताओं को देखिए- ा
भूल-गलती की कुछ पंक्तियां
:
भूल-गलती
आज बैठी है जिरह बख्तर पहनकर
तख्त पर दिल के
चमकते हैं खड़े हथियार उसके दूर तक
औरतें चिलकती हैं नुकीले तेज पत्थर-सी
खड़ी हैं सिर झुकाये
सब कतारें
बेजुबां बेबस सलाम में
अनगिनत खम्भों व मेहराबों-थमे
दरबारे आम में ।
क्या राजा-प्रजा के सम्बन्ध कभी इससे इतर होता
है जैसा कि मुक्तिबोध कह रहे हैं? क्या इस बिम्ब में हिटलर,
मुसोलिनी है या स्टालीन या फिर कोई और भारतीय अंग्रेज शासक, चीन का शासक या नेहरू जी, या अन्य कोई? तो राजा के सामने प्रजा कभी बोलती है क्या? क्या ऐसा
नहीं है कि यह मुक्तिबोध की निजी, आत्मिक और आर्थिक असुरक्षा
है? वह एक गृहस्थ हैं। परिवार वाले हैं। यदि वे बाजार का अंग
बनने को इच्छुक हैं तो आर्थिक विकरालता जान लेने जैसी है। और जब मुक्तिबोध अपनी जरूरतों
की पूर्ति नहीं कर पाते तो कह उठते हैं बाजार के बारे में - आज
बैठी है जिरहबख्तर पहनकर / तख्त पर दिल के/।
पूंजीपति वर्ग हमेशा तख्त पर रहता है। कोई उसे वहां से डिगा नहीं सकता।
कभी यह सोचकर देखना चाहिए कि जो गरीब है, अगर
वो पूंजीपति होता तो क्या वह बुद्ध और महावीर की तरह सबकुछ छोड़-छाड़कर या बांट कर भिक्षुक बनकर जीवन काटता! कुछ उदाहरणों
को छोड़कर क्या यह संभव है? फिर यह आत्मग्रस्तता क्यों?
निजी असुरक्षा को राज्य कभी सात्विक रूप में स्वीकारता है क्या?
जब अरस्तू ने कहा था कि लोकतंत्र ऐसा हो कि हर के दुख का निदान हो तभी
सही मायने में लोकतंत्र है। दूसरी तरफ ब्रटेंड रसल अपनी पुस्तक ‘पावर' में लिखते हैं कि राजा अपने को डिवाइन किंग मानता
है और उसे कोई गलत साबित नहीं कर सकता तो फिर यह चिल्लम-पों के
कुछ मायने हों तो बात बने। शासक और सत्ता से बहुत उम्मीद बेमानी है इसलिए बेहतर है
कि हम शब्द में शक्ति पैदा करें, तभी एक समांतर सत्ता स्थापित
होगी- ‘शब्दों की सत्ता।' यह काम भाटगिरी
और चारणगिरी से नहीं होने वाला, बल्कि उसके लिए उसी तरह का अदम्य
साहस चाहिए जिसके आधार पर एक वैकल्पिक शब्दों की सत्ता स्थापित हो सकती है।
मुक्तिबोध कहते हैः
सब खामोश
मनसबदार
शाइर और सूफी
अल गजाली, इब्ने सिन्ना, अलबरूनी
आलिमो फाजिल, सिपहसालार, सब सरदार
हैं खामोश।
मुक्तिबोध और उनके जैसे तमाम कवि कागजी युद्ध खूब करते हैं। कागजों पर
उतरने वाले आकाशीय शब्दों की दुनिया खूब रंगीन होती है, इसलिए जो मन में आए लिखो, कौन रोकने
वाला है?
मुक्तिबोध भी चुप हैं। आजादी के आंदोलन में कहां थे? क्या कर रहे थे? उनकी तन्मयता कहां
थी? उनकी एक कविता
जिसे गाकर जनता साहस बटोरती हो? किसानों-मजदूरों के दर्द की गूंज ‘चांद का मुंह टेढ़ा है'
में ढूंढ़ते रह जाएंगे?
मुक्तिबोध की कविता ‘पता नहीं' की
कुछ पंक्तियां :
फिर वही यात्रा सुदूर की
फिर वही भटकती हुई खोज भरपूर की,
कि आत्मचेतस् अन्त संभावना
जाने किस खतरों से जूझे जिन्दगी।
आदमी मारा-मारा फिर रहा है, भटक रहा है, पर मुक्तिबोध यह नहीं बताते कि कैसी जिंदगी?
कहीं ऐसा तो नहीं कि जिस तरह बचपन में उन्हें अर्दली घूमाने ले जाते
थे, बाबागाड़ी से घूमाते थे? क्या वही सुख-सुविधा मुक्तिबोध जीवन-पर्यंत चाहते रहे थे? सुविधा किसे अच्छी नहीं लगती है, इस पर भी अगर विचार
किया जाता तो मजा आ जाता। आम से आम आदमी भी समझता है कि अर्थ के बिना कोई भी बाजार
जाएगा तो अनर्थ होगा। दूसरों की खरीदारी-क्षमता को देखकर दुख
तो होगा ही। और अर्थ युग में जिसके पास पूंजी नहीं होती है, उसे
जूझती जिंदगी ही नसीब होगी। मुक्तिबोध की लगभग पूरी कविताएं अपनी निजी असुरक्षा से
ओतपोत हैं। वरना मजाल कि कोई कवि इतना गंभीर हो और उसे आजादी का आंदोलन, देश का विभाजन नहीं दिख रहा हो। आप दोस्तोवस्की की पुस्तक ‘अंडरग्राउंड' पढ़ेंगे तो संभव है कि ओपेन ग्राउंड की
परेशानियों से परिचित नहीं होंगे। फांस का कवि रेंबू तो कहता भी है कि ‘ मेरे पास दिल नहीं है इसलिए मैं दुनिया का सबसे सुखी आदमी हूं या सर्वश्रेष्ठ
हूं।'अगर हम मुक्तिबोध की बेचैनी को जायज मानेंगे तो फिर गंभीर
सवाल उठेगा कि लाखों-करोड़ों लोगों के कष्टों, हाड़-तोड़ मेहनत के बावजूद दर्द की सिसकियां नहीं निकलतीं,
फिर इनकी बेचैनी मतलब फालतू।
लगता है माई डियर, एजेंडा पहले से फिक्स तो नहीं है?
‘चम्बल की घाटी' की कुछ पंक्तियों
को देखिए :
चिन्ता हो गयी, कविता को पढ़ते ही
उसमें से अंधेरे का भभकारा उमड़ा
तिलमिला, आत्मा
पतिकिया करती हुई
चित्रमयी अजन्ता की गुहा जैसी होती गयी।
अवचेतन की चौहद्दी बड़ी विशाल होती है, जो यथार्थ
की नहीं होती। यथार्थ में तो एक-दो कदम बिना जमीन के आगे बढ़ने
की संभावना ही नहीं है। फैंटेसी में आप चाहें तो आसमान को जमीन पर और जमीन को आसमान
में फिट कर दे सकते हैं। यूटोपिया के लेखक ने तो यही किया था कि उसने एक ऐसी दुनिया बनायी जिसमें कोई
असुविधा ही नहीं है, सब कुछ करीने से, सही
समय पर, सब खुश ही खुश लेकिन उसके बाद क्या हुआ? लेखक खुद अपनी ही बनायी दुनिया से ऊब गया और कहा कि वह फालतू में इतना समय
बर्बाद कर बैठा।
अपनी असुरक्षा में इतने डूबे हैं मुक्तिबोध कि उन्हें दूसरा कोई नहीं दिखता
है। ऐसा होता है कि अमीरी से अचानक गरीबी में आने पर आदमी अजन्ता की गुहा में चला जाता
है। उम्मीद नहीं रहती है कि कभी बुरे दिन भी आएंगे।
और ‘अंधेरे में' तो आकर मुक्तिबोध कह
ही देते हैः
कोई अनजानी-अन-पहचानी आकृति
कौन वह दिखाई जो देता, पर
नहीं जाना जाता है
कौन मनु ?
यानी मुक्तिबोध कहीं न कहीं प्रसादजी की तरह ही जीवन दर्शन में विश्वास
करते थे। या प्रसादजी की तरह जीना चाहते थे। मनु का भूत मुक्तिबोध के अवचेतन मन का
भूत हो गया जो उनका बार-बार पीछा कर रहा है- कौन मनु? और मुक्तिबोध अवचेतना के आकाश में यूटोपियाई
धरती की कल्पना करते हैं।
कालिदास कहते हैं- यत्र मनसा मन समीक्ष्यते। अर्थात
मन से मन को देखा जा सकता है।
अपनी चर्चित कृति ‘समीक्षा की समस्याएं' में मुक्तिबोध की शुरुआती पंक्तियां हैं-“कवि और लेखक
होने के नाते, समीक्षा-साहित्य की वर्तमान
पकृतियों पर मेरी नजर जाना स्वाभाविक ही है। मुझे समीक्षकों की स्थिति पर दुःख होता
है।''
और इसी दुःख को मुक्तिबोध इस पुस्तक में उड़ेल देते हैं। दर्जनों अपासंगिक
उदाहरण। नाम न लेते हुए भी अपनी कविताओं की पतिष्ठा के लिए तर्प पर तर्प। अपार तर्प!
इतना ही नहीं, अपनी आत्मग्रस्तता की तुलना वे रवीन्द्रनाथ
टैगोर से करते हैं। (देखिए पेज नं 15) में
कहते हैं-“चूँकि मैं समीक्षा-सिद्धांतों
के वास्तविक पयोग, वास्तविक व्यवहार के संबंध में यहां लिख रहा
हूं, इसलिए इस विषय के भीतर भी पैठना चाहता हूं। मैं जानबूझकर
पगतिवादियों का विरोध करने के लिए, किसी राजनीतिक दृष्टि से पेfिरत दुर्भाव को लेकर नहीं बैठा हूं। इसलिए और भी तत्पर होकर मैं इस संबंध में
अपने कुछ निवेदन पस्तुत करना चाहता हूँ।''
“आत्मग्रस्त व्यक्तिकेन्द्राr काव्य!
क्या शैले का काव्य आत्मग्रस्त व्यक्तिकेन्द्राr नहीं था? क्या रवीन्द्र का काव्य आत्मग्रस्त व्यक्तिकेन्द्राr नहीं था? क्या
महादेवी और प्रसाद का काव्य आत्मग्रस्त व्यक्तिकेन्द्राr नहीं
था?''
मुक्तिबोध के अपने बचाव में दिए ये सबसे बेजोड़ तर्प हैं। और हैं, तो हम हुए तो क्या बुरा हुए! कभी
शैले के मित्र पीकॉक ने कविता को फालतू और बकवास कहा था तो उसके जवाब में शैले को
‘द डिफेंस ऑफ पोएट्री' पुस्तक लिखनी पड़ी थी। मुक्तिबोध
अपनी कविता के बचाव में ‘समीक्षा की समस्याएं' लिखते हैं। किंतु, हिंदी में अपनी कविता को पतिष्ठित
करने के लिए आलोचक बनने को हम और आप यही तो कह सकते हैं-किंतु
यह ट्रेजेडी है नीच!
आइए, अब देखिए मुक्तिबोध ‘कामायनीः एक पुनर्विचार' (पेज नं 153) में कहते हैं-“प्रसादजी ने दर्शन में सब जगह गड़बड़ की
है। उसी प्रकारकामायनी में इच्छा-ज्ञान-किया का वास्तविक सामंजस्य कहीं बताया ही नहीं गया है। (हम पहले ही कह
चुके हैं कि स्वयं श्रद्धा के व्यक्तित्व में इनका अभाव है) पण्डित
रामचंद्र शुक्ल का यह
कथन बिल्कुल ठीक है कि काव्य की रहस्यवादी प्रकृति के कारण (हमारे
शब्दों में उनके विशेष प्रकारके कारण) वैसा होना असंभव ही था,
क्योंकि इच्छा-ज्ञान-किया
का सामंजस्य वास्तविक जीवन क्षेत्र में होता है, न कि संसार से
पलायन करके हिमालयीन शिखरों पर।''
मैंने कुछ वर्ष पहले अशोक सेक्सरिया जी (अब स्वर्गीय)
से पूछा था कि हिंदी के कवि-लेखक जनता के बीच जाकर
संघर्ष क्यों नहीं करते हैं? उनका जवाब था कि हैं, पर बहुत कम, नागार्जुन और रेणु आंदोलनों से जुड़े रहे
थे। मैंने कहा- संख्या तो न के बराबर है, इस पर बोले- दृश्य तो यही है। सब अपने-अपने दुखों के बखान में लगे रहते हैं और कुनबों के जरिए महान बन जाते हैं।
अब थोड़ा यह समझा जाए कि अवचेतन का भय दरअसल होता क्या है? रमेश उपाध्याय अनूदित अंर्स्ट फिशर की पुस्तक कला की जरूरत
(द नेसेसिटी आफ आर्ट) में फिशर ‘कला और पूंजीवादं' अध्याय में कहते हैं- “ ब्रेख्त के सामाजिक द्वंद्वों को नीतिकथाओं के सरलीकृत रूप में पस्तुति करने
की पद्धति से बहुत मिलती-जुलती है। लेकिन इन दोनों महान लेखकों
के रवैये बहुत भिन्न
थे। काफ्का का रवैया अनिर्णय का था। वह अपमानित और आहत लोगों का पक्षधर, सत्ताधारियों का विरोधी था, लेकिन वह जिन लोगों की वकालत
करता था, उन्हें इस लायक नहीं समझता था कि वे दुनिया को बदल सकते
हैं। उसके मन में उठने वाली हर नई उम्मीद के साथ एक नया डर भी पैदा होता रहता था,
हर जवाब के साथ एक नया सवाल भी उठता रहता था।
बेख्त में जवाब
देने की हिम्मत थी। उसे अटल विश्वास था कि दुनिया को बदला जा सकता है, कि यह दुनिया बेहतर और ज्यादा तर्पसंगत बनाई जा सकती है। अर्नेस्ट हेमिंग्वे
ने यथार्थ से पलायन की इस तकनीक का राज विशेष रूप से अपनी पारंभिक पंद्रह कहानियों
के संग्रह ‘हमारे समय में' (इन आवर टाइम)
में खोला है। कहानियों के बीच-बीच में दिए गए छोटे-छोटे अनुच्छेदों में हमारे युग की भयंकर घटनाओं जैसे युद्ध, हत्या, यातना, रक्तपात,
भय, कूरता के संकेत किए गये हैं। इनमें वे तमाम
चीजें आ जाती हैं जिन्हें आधुनिक पुराणपंथी लोग इतिहास की नासमझी थी, शीर्षक के अंतर्गत रखकर खारिज करना चाहते हैं। इनमें से एक कहानी में जो अपनी
काव्यात्मकता के कारण याद रह जाती है
ö निक अकेला रात में अपना तंबू तान रहा है :
“वह अपना तंबू तान
चुका था। वह व्यवस्थित हो चुका था। अब उसे कोई चीज छू नहीं सकती थी। पड़ाव डालने के
लिए यह जगह अच्छी थी। वह उस अच्छी जगह में था। वह अपने घर में था, जो उसने बनाया था... बाहर बिल्कुल अंधेरा था,
तंबू के
अंदर कुछ हल्का था।''
“एक प्रकारसे इसमें और गुलाब गुलाब है, में कोई फर्प नहीं है। इसमें समाज से पलायन करने वाले आदमी का दर्शन पतिबिंबित
होता है। दुनिया से दूर कहीं जाकर अपना तंबू तान लो और कोई तरीका नहीं है। दुनिया बिल्कुल
अंधेरी है। अपने तंबू में सरक जाओ।''
क्या मुक्तिबोध के समकालीनों की उपेक्षा यथासंभव इसलिए भी की जा रही है
कि उनके पास पश्चिम साहित्य का विशेष अध्ययन नहीं था? इस आधार पर अगर हम कवियों के काव्य-विवेक और आलोच्य-विवेक का आकलन करेंगे तो हमें यह भी
देखना पड़ेगा कि किसी कवि पर परिवेश का कितना गहरा प्रभाव पड़ता है।
अब हम थोड़ा मनोवैज्ञानिक ढंग से समझने की कोशिश करें। अपने भारतीय वैज्ञानिक
डॉ. हरगोविंद खुराना ने जैसे पित्रैक (जीन) पर काम करने वाले कुछ कांतिकारी निष्कर्ष दिए हैं।
वे कहते हैं कि ये जीन ही सम्पूर्ण व्यक्तित्व के तत्व माने गये हैं।
पसिद्ध अमेरिकी मनोवैज्ञानिक ओटोरैन्क ने जन्म को ही जीवन की सबसे बड़ी
दारूण घटना माना है। शिशु जन्म लेते ही रो पड़ता है। (नीत्से की ‘द बर्थ आफ ट्रेजेडी'
में भी यह बात कही गयी है)।
दूसरी तरफ वातावरणवादी मनोवैज्ञानिकों ने ब्राह्म भौतिक कारण, आंतरिक एवं सामाजिक वातावरणों के प्रभाव को व्यक्तित्व
के विकास का मूल कारण माना है। जैसे भोजन से उत्पन्न रक्त में मिले हुए तत्व,
हारमोन्स आदि का प्रभाव भी पड़ता है। घर-परिवार,
खान-पान, रहन-सहन, जलवायु, प्रकृति के अन्य साधन आदि के प्रभाव भौतिक वातावरण
के अंतर्गत आते हैं। मनोविज्ञान का दावा है कि मां के गर्भ में बच्चे का लगभग पच्चीस
पतिशत मानसिक विकास हो जाता है। सात वर्ष तक लगभग सत्तर पतिशत। मुक्तिबोध को एम.ए. तक कोई आर्थिक, मानसिक,
पारिवारिक परेशानी नहीं थी। उनके बड़े सुपुत्र ही खुद इस बात को स्वीकार
कर रहे हैं।
मनोवैज्ञानिकों में चर्चित गाल्टन, पियरसन,
गेडार्ड, थाम्पसन, गेसेल,
न्यू मैन, फी मैन, ट्रायन,
फायड, युंग, एडलर,
एलिस हैवलाक और न जाने कितनों ने यह साबित किया है कि व्यक्तित्व के
निर्माण में परिवेश का महत्वपूर्ण योगदान होता है। इतना ही नहीं, बचपन में सुख-सुविधाओं में पले-बढ़े बच्चे बाद के दिनों में दुख होने पर जीवन में बेचैन, समाज को दुश्मन और समस्याओं से पलायन के लिए भयंकर रूप से मानसिक अवचेतन के
शिकार हो जाते हैं। ये मनोवैज्ञानिक आगे कहते हैं- “परिवेश से
कटी- छंटी कविता पलायनवादी, अतिशय कल्पनावादी
और सामंतवादी कही गयी है। परिवेश से संघर्ष का मुख्य उपादान है काम, इनके अतिरिक्त माता-पिता के आश्रय से मुक्त होता युवक
मन वातावरण में उपस्थित उत्तेजनाओं से संघर्ष कर अपने हाथ-पांव
को तोलना चाहता है। पfिरवार के अनावश्यक संरक्षण से मुक्ति का
प्रयास मनुष्य का पथम महत्वपूर्ण स्वातंत्र्य
संघर्ष होता है। कामेच्छा की पूर्ति में आनेवाली बाधाएं जो पाय नैतिक और सामाजिक होती
हैं, अपने दमन को काव्य में कलात्मक और उदात्त रूप से व्यक्त
करती है। इतना ही नहीं, वैवाहिक जीवन के मूल्य में कामेच्छा की
पूर्ति के अतिरिक्त आर्थिक और मनोवैज्ञानिक सुरक्षा के भाव भी रहते हैं। ध्यान दीजिए,
इनमें से किसी एक के खंडित होने से भी कवि के जीवन में पुंठाएं आ जाती
हैं। वैवाहिक जीवन का संतुलन कवि के पारिवारिक परिवेश को सम=िद्ध
देता है, लेकिन उसका खंडन उसके जीवन में एकान्तिकता भर देता है।''
हिंदी में आधुनिक काल के सर्वाधिक महत्वपूर्ण कवियों का जीवन-परिवेश इससे पुंठित रहा है। अल्पायु में स्वर्गीय प्रसाद
पत्नी की मृत्यु के कारण बारी-बारी से तीन विवाह करने को विवश
हुए, निराला युवावस्था में मनोहरा देवी को खोकर आजीवन विधुर रहे
और पंत आजीवन कुंआरे रहे और महादेवी वर्मा का दाम्पत्य जीवन पूर्णत खंडित रहा। आपको
महसूस होगा कि इनके जीवन और काव्य पर इस विच्छिन्न भाव और उजड़े पfिरवेश का व्यापक प्रभाव है।
अब हम सीधे मुक्तिबोध के वैवाहिक जीवन और उसके बाद के कुछ पसंगों पर छलांग
लगाकर पहुंच जाते हैं।
अपने संपादकीय की
पहली लाइन अर्थात ‘दूसरा नरक है' पर आ जाते
हैं। 22 वर्ष की उम्र में मुक्तिबोध ने शांताबाई से शादी की।
विष्णुचंद्र शर्मा की पुस्तक ‘मुक्तिबोध की आत्मकथा',
में मुक्तिबोध कहते हैं-‘शांता का चेहरा खिड़की
से दिखता है।'
आगे का पसंग- “अब यह मेरे पृथक संसार की एक शैली
बन गयी है। जब पास के आदमी से मेरा मन नहीं मिलता तो मैं बेचैन हो जाता हूं। अचानक
उस दिन मैंने कलम मेज पर रख दी। मेज पर तोलस्तोय का रिजेक्शन उपन्यास रखा था। उसे मैंने
उठा लिया। मेरी अस्थिर मानसिकता में जो ख्याली नशीली धुंध थी, उसमें तोलस्तोय के बहुत से कमजोर पात्र चलते-फिरते नजर
आए। धुंध में सचमुच का नेख्ल्दोव का चेहरा। मेरा हाथ पकड़ कर रिजेक्शन के पन्ने उलटता
है, एक पृष्ठ खोलकर वह कहता है, पढ़ो,
यह तुम हो, पढ़ो। मैं नशे या बहाव में पढ़ता हूं,
कई रातों से सो नहीं पाता हूं।''
यानी कि मुक्तिबोध का रूसीकरण हो गया और वे नेख्ल्दोव हो गए और शांताबाई!
अगला पसंग “मैं धुंध में गुजरे जमाने में खो
गया था। उपन्यास बंद करने पर नेख्ल्दोव भी धुंध में गुम हो गया था। दर्पण में मेरा
चेहरा नेख्ल्दोव में रूपांतरित हो जाता है। मैंने कविता में कात्यूशा का नाम बदल कर
वहां शांताबाई लिख दिया।''
अगला पसंग मां रंगभूमि पढ़ रही थी। मैंने पूछा, मां, इसका नायक भी तात्या टोपे सा
वीर तो नहीं? मां हंसी, पगले! यह सूरदास की विडंबना भरी कहानी है।
मां कहीं काम पर चली गई थी। मैं धुंधले पकाश में सूरदास का दुर्बल शरीर
और उसका जीर्ण वस्त्र देखता रहा। धुंधले पकाश में भी सूरदास का मनुष्य, मुझे अपने से दूर लगा-अलग-थलग। वह चेहरा
मनुष्य के जीवन पेम का उपहास कर रहा था।
यानी सूरदास नहीं मुक्तिबोध नेख्ल्दोव के रूप में अपने को देखते हैं। लगता
है मुक्तिबोध को कविताओं को कई बार काट-छांट
करने की सीख उन्हें तोलस्तोय से ही मिली थी। तोलस्तोय ने लिखा है कि ‘वार एंड पीस', लिखते समय जिसे लिखने में उन्हें लगभग
सात वर्ष लगे थे-कई बार काट-छांट करनी पड़ी
थी।
अगला पसंग “क्षीरसागर मेरा बाल सहचर है। उसका
चेहरा लंबा है। वह चेहरा कभी पत्थर-सा कड़ा हो जाता है,
कभी गरी सा मुलायम। मैंने रात उसे अपने और शांताबाई के संबंध की अकुला
रही समस्या बताई- या तो मैं सामंतों-सा
लंपट बन रहा हूं और पेम की पवित्र सीमा को लांघना चाहता हूं या बुआ आताबाई के कुलीन
संस्कारों का सामना करने से डर रहा हूं। इससे मेरा स्वर कांप रहा था। ''
आप भी देखिए, जिस शांताबाई के लिए इतनी बेचैनी,
उस शांताबाई के साथ फिर क्या हुआ?
अब पुस्तक के पथम पसंग पर आ जाते हैं-
गजानन माधव मुक्तिबोध! उठो!
बहुत समय हो गया। मैं इसी आवाज की पतीक्षा कर रहा था। शांताबाई ने मेरा
कभी पूरा नाम लिया था? नहीं! वह मुझे बाबू
बुलाती है।
आगे देखिए- “मैं अभी कुछ काव्य लिखने के मूड
में था कि शांता मेरा मानसिक सुख भंग करने के लिए आ गई। मैं नहीं चाहता था कि शांता
को देख मुझे वैषम्य मालूम हो।''
पहले शांताबाई को पाने के लिए स्वर कांप रहा था और फिर चेहरा देखकर वैषम्य!
दूधनाथ सिंह की ‘मुक्तिबोध साहित्य में नई पवृत्तियां'
(पेज नं 46) में नेमिचंद्र जैन को
लिखे अपने पत्रों में मुक्तिबोध की भावनात्मक पतिकियाएं हैं-उनसे
उनकी मानसिक उठापटक का पता चलता है। मुक्तिबोध कहते हैं-‘ईश्वर
करे अब कोई लेखक शादी न करे, और करे तो घर-गृहस्थी
के चक्कर से खुदा उसे मुआफ रखें। घर-गृहस्थी एक बला है,
जिसके दो सींग हैं, जो गधे के होते हैं।'
नामवर सिंह अपनी कृति ‘वाद-विवाद- संवाद' के ‘आलोचना और संस्थान' अध्याय में कहते हैं - ‘क्या हिंदी का अध्यापक- आलोचक भी आज इस आत्म-पवंचना का शिकार नहीं है? यह सच है कि अपने संस्थान के
जिस वातावरण में वह पढ़ने के लिए मजबूर है और लिखने के लिए लाचार, वह दुःस्वप्न के समान है-ऐसे दुःस्वप्न जिसे भूलने में
ही भलाई है, लेकिन इससे कोई कब तक भाग सकता है, भागकर जा भी कहां सकता है।
क्या पलटकर भिड़ने का यह मौका नहीं? किसी
और तरह नहीं स्वयं अपने आलोचना कर्म में, आलोचना कर्म के जरिए।
मेरी कुछ पंक्तियां हैः
गोया यह कि
वह हिंदुस्तानी कवि है
पर अपने दिमाग में यूरोप-अमेरिका
रखता है
अपनी कम पढ़ी-लिखी जनता पर
मानसिक जुल्म के लिए अंग्रेजों की तरह ही
यह शौक मगर काबिले-तारीफ है।
अंत में बस इतना ही -
हिंदी साहित्य का मुंह टेढ़ा है
क्या कहूं, किससे कहूं, बड़ा फेरा है। - निर्भय देवयांश

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा आज गुरूवार (01-06-2017) को
जवाब देंहटाएं"देखो मेरा पागलपन" (चर्चा अंक-2637)
पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
Blogging is the new poetry. I find it wonderful and amazing in many ways.
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