कविता कृष्णपल्लवी की रोशनाबाद श्रृंखला की कविताएँ श्रम, प्रेम और प्रतिरोध का अप्रतिम कथा-काव्य हैं।

Sushil Kumar
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 रोशनाबाद श्रृंखला की कुछ चयनित कविताओं की समीक्षा : 

1. नगद-उधार की उधेड़बुन  

2. अलका और सुमेर की प्रेम कविता  

3. छोटा पाकिस्तान  

4. भाषा का डर  

5. तब तो अच्छी बात है!   6. रामलौट

[नोट:  ये सभी कविताएँ और वेबसाइट 'शब्द सक्रिय' हैं पर प्रकाशित। लिंक

कविता कृष्णपल्लवी की 'रोशनाबाद श्रृंखला’ श्रम-यथार्थ की ऐसी काव्य-गाथा है जहाँ जीवन-वृत्त, इतिहास और वर्ग-संबंध एक ही देहवृत में घटित होते हैं। रचना की संवेदना निजी अनुभूति पर ठहरने के बजाय सामाजिक संरचना के भीतर जाकर उसकी कड़ियों, दरारों और बंधनों की गहरी टटोल करती है। यहाँ कथा-काव्य का ढाँचा गीतात्मक आवेग को ठोस सामाजिक सत्व देता है; पात्र अनुभव के साथ-साथ उत्पादन-संबंधों और विचारधारात्मक दबावों की रेखाएँ भी खींचते चलते हैं। इस दृष्टि से यह रचना मार्क्सवादी सौंदर्य-दृष्टि की ओर गहरी संकेत करती है—श्रम-मूल्य, ऋण-अनुशासन, वस्तु-विनिमय, पारिवारिक पुनरुत्पादन और वर्ग-चेतना के उद्भव की प्रक्रियाएँ कविताओं में साहित्यिक बनावट के भीतर ही अंतर्धारा के रूप बहती दिखाई देती हैं।  

पहली कविता 'नगद-उधार की उधेड़बुन' में सत्तू का प्रसंग श्रमिक अस्थिरता का जीवित नैरेटिव प्रस्तुत करता है। हरिद्वार सिडकुल के कारख़ानों की दिहाड़ी, जगह-जगह ठहरती-छूटती नौकरी और उसके बीच गृहस्थी की न्यूनतम आवश्यकताओं का तनाव—सब मिलकर श्रम-बाज़ार की अनिश्चितता को रूपायित करते हैं। रामबीर पंसारी के यहाँ राशन का बहीखाता केवल खाताबही नहीं, सामाजिक अनुशासन का औज़ार भी है; उधारी के माध्यम से मज़दूर को नैतिक अपराध-बोध और निर्भरता के जाल में फँसाने की तकनीक स्पष्ट होती है। 

कवयित्री यहाँ आर्थिक संरचना को सूक्ष्म मानवीय वाक्यों में पकड़ती हैं—“अब घरवाली भी काम पकड़ लेगी कहीं/ उधार बड़ी आफत है/ जान की साँसत है।” यह छोटा-सा कथन श्रम-मूल्य के पुनरुत्पादन की पूर्ण सामाजिक अर्थव्यवस्था खोल देता है: पारिवारिक श्रम का जोड़, स्त्री-कार्य का अदृश्य हिस्सा और ऋण के प्रतीक से गढ़ी गई आज्ञाकारिता—सभी एक साथ उपस्थित हैं। इस प्रसंग में प्रेम और इच्छा का सांस्कृतिक पक्ष भी दिखाई देता है: राजदुलारी को फ़िल्मी प्रतिमा में देखना उस दृश्य-संस्कृति का संकेत है जो बाज़ार निर्मित चाहतों से श्रमजीवी जीवन की कठोरता पर क्षणिक आवरण चढ़ाती है। सत्तू का शरीर कबड्डी और लाठी-भाँजने का जुझारू कौशल सँजोए रहता है, पर कारख़ाने की अनुशासन-व्यवस्था उसे “मनबढ़” ठहराकर नियंत्रण में रखने की भाषा रचती है—यह वही सत्ता-भाषा है जो उत्पादन-स्थल पर प्रतिरोध की स्वाभाविक ऊर्जा को नाम देकर निष्प्रभावी करने का उपक्रम करती है।  

अलका और सुमेर का आंतरिक संसार प्रेम को वर्गानुभूति के क्षितिज तक ले जाता है। जातीय दूरी, भूगोल की लकीरें और पारिवारिक विघटन—इन सबके बीच श्रम का साझा परिदृश्य उन्हें एक-दूसरे तक पहुँचा देता है। महामारी के समय का निर्जन इतिहास यहाँ सामूहिक पीड़ा की स्मृति बनकर उभरता है; दोनों का संबंध निजी रूमानी आग्रह के साथ-साथ साझा श्रम-नैतिकता की दीर्घ प्रतिबद्धता रचता है। कवयित्री की पंक्ति—“दुखों का इतिहास अगर एक हो / और वर्तमान भी अगर साझा हो / तो प्यार कई बार ताउम्र ताज़ा बना रहता है,”—प्रेम को सामाजिक संधि में रूपांतरित कर देती है। यही कारण है कि कोर्ट की औपचारिकता के बाद इन दोनों का कमरा भगतसिंह के चित्र और मई-दिवस के परचों से एक छोटे राजनीतिक कक्ष में बदल जाता है; निजी रिश्ते का ताप सार्वजनिक न्याय-बोध में प्रवाहित होने लगता है। यहाँ रचना-संवेदना का दिशाबोध स्पष्ट है: प्रेम उस नैतिक ऊष्मा का नाम है जो शोषण के विरुद्ध मनुष्य को मनुष्य के साथ खड़ा करती है और जो श्रम की साझी तकलीफ़ को संगठन की भाषा देने लगती है।  

इन प्रसंगों में कवयित्री स्थान-सूचक विवरणों—रोशनाबाद, पठानपुरा, लेबर चौक, सिडकुल—के माध्यम से आर्थिक भूगोल का मानचित्र खींचती हैं। ये नाम महज दृश्य-यादें नहीं; प्रवास, अस्थायी ठिकानों और ठेकेदारी की छाया में गुजरती उम्रों का सांस्कृतिक भोला-भाला अभिधान भी हैं। भाषा की धरातली सादगी में आलोचनात्मक तीक्ष्णता का संयोजन इस श्रृंखला की विशिष्टता है: रोज़मर्रा की बोली में सिद्धांत का काव्यशास्त्र काम करता है। कथा-आयोजन इस प्रकार रचा गया है कि संवाद, स्मृति और सूक्ष्म दृश्यों के सहारे वर्ग-संबंधों का गतिक्रम पाठक के भीतर अनुभव की तरह घटित हो। न अति-भावुकता की तरंग, न विचार की नीरस घोषणाएँ; यहाँ अर्थ-गति मानवीय रिश्तों के भीतर ही सिद्धांत का संचार करती है। यही गुण  मार्क्सवादी सौंदर्य-दृष्टि की पहचान है—जीवन-सामग्री से उठती कलात्मक संरचना जहाँ व्यक्तिगत प्रसंग सामाजिक सत्य की दीर्घ रेखाओं से जुड़ते हैं।  

कथा-काव्य की विधा इस समूचे उपक्रम को संगति देती है। पात्रों की क्रमिक उपस्थिति, क्रिया-परिस्थितियों का विस्तार और सूक्ष्म कथन-चाल कविता को जीवंत आख्यान में बदलती है; फिर भी लय, विराम और अर्थ-संकेतन की भंगिमाएँ उसे कविता के ही प्रदेश में रखती हैं। इस शैली में काव्य-वस्तु न किसी स्मृति-चित्र की तरह जड़ बनती है, न घोषणापत्र में ढल जाती है; जीवन की आर्द्रता और भाषा की तेज़ धार साथ-साथ चलती हैं। इसी सहगमन में श्रम, प्रेम और आशा का त्रिकोण उभरता है जो आगे सामुदायिक संघर्ष, भाषिक-सांस्कृतिक तनाव और संगठन की राह का संकेत देता है। इस तरह यह प्रारम्भ ही पाठक की संवेदना को सामाजिक दृष्टि में रूपांतरित करने का काम कर देता है—यहीं इसकी कलात्मक ऊर्जा और वैचारिक स्फूर्ति का प्रथम प्रमाण निहित है।

*रोशनाबाद श्रृंखला* में कुछ कविताएँ जहाँ श्रम और पारिवारिक संघर्ष पर केंद्रित हैं , वहीं कुछ समाज की वैचारिक संरचना और सांस्कृतिक तनावों की ओर बढ़ती हैं। कवयित्री केवल जीवन की कठिनाइयों और संघर्ष का अंकन नहीं करतीं, वह उस व्यवस्था को भी उजागर करती हैं जो इन कठिनाइयों को अपने स्वार्थ से स्थायी बनाती है। गफूर मियाँ और अनवर जैसे पात्र उसी संरचना के भीतर अपने अनुभवों को जीते हैं, जिनसे सत्ता की राजनीति और रोज़मर्रा के सामाजिक संबंधों का अंतर्विरोध सामने आता है।  

“छोटा पाकिस्तान” में गफूर मियाँ के साथ होने वाला व्यवहार दिखाता है कि श्रम से अर्जित सम्मान किस प्रकार धार्मिक पहचान की दीवार से टकराकर मिट जाता है। कविता की पंक्ति—“अब तो पाकिस्तान वाले भी हमें न लेंगे, पिछवाड़े लात मार भगा देंगे”—मजाक के रूप में कही गई लग सकती है, पर इसमें विस्थापन और बेगानगी का गहरा दर्द छिपा है। यह वही कुत्सित प्रक्रिया है जहाँ बहुसंख्यकवादी राष्ट्रवाद रोज़ी-रोटी के साझेपन को मिटाकर पहचान की राजनीति को प्रमुख बना देता है। कवि ने यहाँ सांप्रदायिकता को किसी नारे में नहीं, बल्कि एक मज़दूर के टूटी-फूटी संवाद में उतारा है। यह पंक्ति इंगित करती है कि इतिहास के लंबे विभाजन अब भी श्रमिकों की ज़िंदगी में मौजूद हैं और उन्हें हर दिन अपने ही शहर में पराया बना देते हैं।  

“भाषा का डर” में अनवर का प्रसंग अलग स्तर पर इस विडंबना को बढ़ाता है। ट्रेन के भीतर का दृश्य, जहाँ लोग अचानक यह घोषित करते हैं कि “हिन्दुस्तान में सिर्फ़ हिन्दी भाषा ही चलनी चाहिए”, हमें उस मानसिकता का परिचय कराता है जो भाषा को संस्कृति की विविधता नहीं, सत्ता की एकरूपता के औज़ार के रूप में देखती है। अनवर का प्रश्न—“क्या अब गाय की तरह भाषा भी भीड़ के हाथों पीट-पीटकर मार दिये जाने का सबब बन जायेगी!”—यह संकेत करता है कि भाषाई पहचान भी हिंसा का शिकार हो सकती है। यह स्थिति केवल भय की अभिव्यक्ति नहीं है, यह उन दबावों की आलोचना है जो श्रमिक जीवन को बहुभाषी अनुभवों से काटकर एक संकीर्ण परिभाषा में बाँधना चाहते हैं।  

इन दोनों कविताओं में कवयित्री ने यह स्पष्ट किया है कि वर्गीय अनुभव अकेला नहीं होता; उसके भीतर धर्म, भाषा और जातीय पहचान के अनेक तनाव गुंथे रहते हैं। गफूर मियाँ का हाशिये पर धकेला जाना और अनवर का असुरक्षित अनुभव, दोनों हमें यह सिखाते हैं कि आर्थिक शोषण की जड़ें अक्सर सांस्कृतिक प्रभुत्व से मज़बूत की जाती हैं। इस प्रकार “रोशनाबाद श्रृंखला” का यथार्थवाद (Realism) केवल श्रम के पसीने तक सीमित नहीं रहता, वह वैचारिक वर्चस्व (Ideological Hegemony) की परतों को भी बड़े कैनवास में सामने लाता है।  

कविता कृष्णपल्लवी की खासियत यह है कि वह इन जटिलताओं को निबंधात्मक ढंग से नहीं कहतीं, वरन पात्रों के छोटे-छोटे वाक्यों और हावभावों में छिपा देती हैं। गफूर मियाँ का टूटा हुआ दाँत दिखाते हुए हँसना या अनवर का अपने बेटे को तीन भाषाओं में स्टेशन का नाम पढ़वाना—ये क्षण साधारण लगते हैं ,पर इनके भीतर पूरी सामाजिक संरचना का द्वंद्व उपस्थित है। यहाँ कथा-काव्य की शक्ति यह है कि दृश्य और संवाद पाठक को ठोस अनुभव की तरह मिलते हैं और उनके भीतर से वैचारिक अर्थ परत दर परत खुलते हैं।  

इस हिस्से की कविताएँ हमें यह भी बताती हैं कि श्रमिक जीवन का संकट केवल तनख़्वाह या रोज़गार तक सीमित नहीं, उसकी जड़ें पहचान और अस्तित्व तक फैली हुई हैं। गफूर मियाँ के लिए गुमटी लगाना रोज़ी-रोटी का सवाल है, पर उसे “छोटा पाकिस्तान” का नाम देकर उस रोज़ी-रोटी को भी संदिग्ध बना दिया जाता है। अनवर के लिए बेटे का बहुभाषी ज्ञान गर्व का विषय है, पर उसी क्षण वह गर्व अपमान में बदलने लगता है। इन दृश्यों से कवयित्री यह स्थापित करती हैं कि वर्ग-संघर्ष (Class Struggle) को समझने के लिए हमें धर्म और भाषा की  सामाजिक 'लेयर' को भी देखना होगा, क्योंकि वास्तविक जीवन में ये सब एक-दूसरे से अलग नहीं, अंतरग्रंथित होते हैं।  

इन कविताओं का सबसे बड़ा योगदान यह है कि वे सामाजिक असमानता को किसी दूरस्थ अमूर्त रूप में नहीं दिखातीं हैं, बल्कि उसे रोज़मर्रा के अनुभवों की ठोस ज़मीन पर खड़ा करती हैं। कवयित्री इस प्रकार उन अदृश्य दबावों को अनावृत करती हैं जो श्रमिकों की ज़िंदगी को और बदहाल बना देते हैं। यहाँ अभिव्यक्ति यह नहीं है कि मज़दूरों की हालत दयनीय है; अभिव्यक्ति यह है कि समाज की संरचना उन्हें बार-बार तोड़ती , बाँटती और असुरक्षित करती है।  

इस तरह “रोशनाबाद श्रृंखला” की कविताएं हमें यह समझाता है कि कविता केवल पीड़ा का बयान नहीं है, यह सत्ता और समाज की गहराई तक उतरकर उन युक्तियों को पकड़ती है जिनसे वर्चस्व कायम रहता है। यही इसकी कलात्मक ऊँचाई है और यही वह बिंदु है जहाँ यह काव्य दस्तावेज़ से आगे बढ़कर आलोचनात्मक हस्तक्षेप बन जाता है।

“रोशनाबाद श्रृंखला” में आगे आते हुए कविता कृष्णपल्लवी का कवि मज़दूर जीवन के भीतर प्रतिरोध और भविष्य की आकांक्षाओं को सामने लाती हैं। रामलौट और नवीन जैसे पात्र यह दिखाते हैं कि श्रमिक वर्ग पीड़ा और असुरक्षा में कैद नहीं रहता, उसमें नई सामाजिक चेतना और संगठन की ऊर्जा भी जन्म लेती है। रामलौट का जीवन लगातार पराजयों,असफलताओं और दुर्घटनाओं से भरा हुआ है। कारख़ाने में काम करते हुए अंगुलियाँ कट जाना, हरजाने के नाम पर नाममात्र की रकम मिलना, शहर-दर-शहर भटकना—ये सभी प्रसंग श्रमिक जीवन के शोषण और अस्थिरता की गवाही हैं। पर इसी क्रम में नवीन का चरित्र सामने आता है, जो पिता की पीढ़ी की विवशताओं से आगे निकलकर राजनीतिक संगठन और वैचारिक अध्ययन की ओर बढ़ता है। उसका कथन—“बाप का खाकर नहीं होता है भगतसिंह का काम बापू, अब मैं बड़ा हो गया हूँ”—पीढ़ीगत अंतर का संकेत है और साथ ही उस नई वर्ग-चेतना का उद्घोष भी है जो मज़दूर परिवार की अगली पीढ़ी को राजनीतिक प्रतिरोध की राह पर ले जाती है।  


नवीन का भगतसिंह पुस्तकालय में नियमित बैठना, सावित्री फुले अध्ययन केन्द्र में बच्चों को पढ़ाना और मजदूर साथियों के बीच संगठन की बातें करना, यह बताता है कि श्रम जीवनयापन की प्रक्रिया भर नहीं रहता, वह विचार और संघर्ष का आधार भी बन जाता है। 


कविता कृष्णपल्लवी यहाँ यह दिखाती हैं कि अगली पीढ़ी का मज़दूर अपने पिता की तरह केवल श्रम-शक्ति नहीं बेचता, वह बौद्धिक और राजनीतिक सक्रियता में भी भाग लेता है। इस दृष्टि से यह प्रसंग वर्ग-संघर्ष (Class Struggle) की उस दीर्घ यात्रा की ओर संकेत करता है जिसमें व्यक्तिगत अनुभव सामूहिक प्रतिरोध में बदलते हैं।  


रामलौट के जीवन में कलावती की उपस्थिति इस श्रृंखला का एक और महत्त्वपूर्ण पक्ष है। वह अपने व्यक्तिगत अतीत से जूझ चुकी है और अब महिला मज़दूरों की यूनियन बनाने में सक्रिय है। उसकी चौड़ी कद-काठी, आत्मविश्वास और मज़बूत व्यक्तित्व स्त्री श्रम-शक्ति की उस आकृति को सामने रखते हैं जिसे पूँजीवादी व्यवस्था छिपाना चाहती है। 


उसका संवाद—“कुछ करके तो देखें, परलय मचा देंगे”—नाटकीय होने के बावजूद वास्तविक संघर्ष की प्रतिध्वनि है। इस प्रसंग से यह स्पष्ट होता है कि श्रमजीवी स्त्रियाँ अब घरेलू भूमिकाओं तक सीमित नहीं, वे संगठित प्रतिरोध का अगला मोर्चा बन सकती हैं।  


ये कविताएँ समकालीन हिंदी साहित्य में कथा-काव्य की उस विधा को पुनर्जीवित करती हैं जो लोककथाओं और श्रमिक आख्यानों की परंपरा से आती है। रामलौट का ठेला, नवीन की राजनीतिक सक्रियता और कलावती की जुझारूता—ये सभी प्रसंग मिलकर कथा-काव्य की संगति गढ़ते हैं। घटनाओं का क्रम, संवाद की शैली और पात्रों की जीवंत उपस्थिति कविता को किसी रिपोर्ट या संस्मरण में बदलने नहीं देतीं, बल्कि एक ऐसी कलात्मक संरचना रचती हैं जिसमें वास्तविक जीवन और साहित्यिक संवेदना साथ-साथ चलते हैं।  


कविता कृष्णपल्लवी की कविताओं का शिल्प इस दृष्टि से उल्लेखनीय है कि वे छंद या बिंब की परंपरागत सजावट पर निर्भर नहीं करतीं। उनकी शक्ति घटनाओं के संगठन और भाषा की आंतरिक लय से आती है। वे संवाद, विवरण और प्रसंग को इस तरह गढ़ती हैं कि पाठक को लगता है, मानो वह किसी मज़दूर बस्ती में बैठा सब देख और सुन रहा हो। भाषा उनकी कविताओं का सबसे बड़ा औजार है—यह भाषा सहज है, बोलचाल की है और श्रमिक जीवन की ध्वनियों से बनी है। फिर भी इसमें भावनात्मक तीक्ष्णता और विचार की गहराई मौजूद रहती है।  


शिल्प की यह विशिष्टता उन्हें समकालीन हिंदी कविता में अलग स्थान देती है। यहाँ कविता सूक्ष्म बिंब या प्रतीक पर आधारित नहीं, कथा-काव्य की तरह घटनाओं और पात्रों की श्रृंखला से अपना प्रभाव रचती है। यही कारण है कि *रोशनाबाद श्रृंखला* एक साथ काव्य और आख्यान दोनों बन जाती है। इस शैली में यथार्थवाद (Realism) और राजनीतिक चेतना संगठित रूप में आते हैं।


इसी वजह से कविता कृष्णपल्लवी का काव्य साहित्यिक सौंदर्य का अनुभव कराता है और साथ ही श्रम, संघर्ष और सामाजिक असमानता के दस्तावेज़ के रूप में भी हमारे सामने उपस्थित होता है । 


  • ·       विगत ढाई दशकों से भी अधिक समय से क्रान्तिकारी वाम धारा से जुड़ी राजनीतिक ऐक्टिविस्ट का जीवन।
  • ·       सम्प्रति हरिद्वार में स्त्री मजदूरों के बीच काम और देहरादून में सांस्कृतिक सक्रियता ।
  • ·       बरसों कविताएँ छिटफुट लिखने और नष्ट करने के बाद 2006 से नियमित कविता-लेखन ।
  • ·       हिन्दी की अधिकांश पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ प्रकाशित । नेपाली, मराठी, बांग्ला, अंग्रेज़ी और फ्रेंच में कुछ कविताएँ अनूदित ।
  • ·       एक संकलन 'नगर में बर्बर' वर्ष 2019 में परिकल्पना प्रकाशन से प्रकाशित ।
  • ·       'अन्वेषा' वार्षिकी 2024 का सम्पादन किया जो काफ़ी चर्चित रहा ।


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