कविता कृष्णपल्लवी की रोशनाबाद श्रृंखला से कुछ कविताएँ

Sushil Kumar
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1. नगद-उधार की उधेड़बुन 

2. अलका और सुमेर की प्रेम कविता 

3. छोटा पाकिस्तान 

4. भाषा का डर 

5. तब तो अच्छी बात है! 

6. रामलौट


(एक)

नगद-उधार की उधेड़बुन 

नाम सत्यनारायण है।

साथी-संघाती सब सत्तू उसे कहते हैं।

दो महीने घर रहकर लौटा है

घरवाली राजदुलारी को साथ लेकर।

गाँव नांगल सोती, जिला बिजनौर।

नयी-नयी शादी है, एक साल पुरानी।

राजदुलारी को सत्तू

दीपिका पदुकोण समझता है।

दोस्तों से कहता है कि उसकी चाल

और हँसी पर मन दीवाना-मस्ताना हो जाता है।

दोस्त सब ख़ूब हँसते हैं

और भौजाई को छेड़ते हैं।

सत्तू कई गाँवों का कबड्डी चैंपियन रहा 

गाँव में और ताजिया के जुलूस में

लाठी भी भाँजता था एक नम्बर।

राजदुलारी का मन भी उसपर

दीवाना-मस्ताना रहता है।

दिहाड़ी करता है सत्तू

हरिद्वार सिडकुल के कारखानों में,

जहाँ भी मिल जाये।

दो-चार महीने से ज़्यादा

शायद ही कहीं टिकता है।

रोशनाबाद की मज़दूर बस्ती में रहता है।

भारी काम का माहिर है,

लेकिन सुपरवाइजरों की निगाह में

मनबढ़ भी है।

जब न भिड़े किसी फैक्ट्री में जुगत

तो लेबर चौक पर खड़ा हो जाता है।

आज शाम को पहुँचा राशन-पानी का

सामान लेने रामबीर पंसारी की दुकान पर।

सौदा-सुलफ के बाद जो रकम बनी

उससे पैंतीस रुपए कम थे

सत्तू की टेंट में।

कुछ देर जोड़ा-घटाया,

कुछ देर सोचा, फिर बोला,

"कुछ सामान कम कर दो सेठ!"

"तू कहे तो फिर खोल दूँ खाता तेरा!"

कहा रामबीर पंसारी ने।

थोड़ा रुका सत्तू, फिर बोला,"रहने दो, सेठ,

जहाँतक हो सके, नगद का हिसाब ही ठीक है।

अब घरवाली भी काम पकड़ लेगी कहीं।

उधार बड़ी आफत है।

जान की साँसत है।

आते-जाते ताकते भी हो

तो लगता है तगादा कर रहे हो।"

 

(दो)

अलका और सुमेर की प्रेम कविता

 

सिर्फ़ 200 मीटर का अंतर था उनके डेरों में

उमर में दो सालों का

और बिहार में उनके गाँव भी 

अगल-बगल के जिलों में थे

दो कोस के फासले पर I

जातियाँ अलग थीं उनकी I

अलका थी बढ़ई

और सुमेर कलवार था I

दो बरस की थी जान-पहचान

जो एक-दूसरे को जानने-समझने में लगी I

गाँव-जवार की नज़दीकी भी काम आयी

और यह बात भी कि सुमेर की बूआ

ब्याही थी अलका के गाँव में I

गाँव में दोनों के अपना कहने को 

कोई नहीं बचा था

और इसकी भी दोनों की अलग-अलग

लंबी कहानी थी I

सुमेर की तो खेतीबारी थी ही नहीं

पिता को उसने देखा ही नहीं था

और सोलह की उमर में माँ भी छोड़ गयी थी

दुनिया में अकेला

मेहनत-मजूरी कर जिसने उसे पाला-पोसा था I

इकलौती अलका की डेढ़ बीघा ज़मीन

उसके चाचाओं ने दबा ली थी

मलेरिया की चपेट में आकर माँ के मरने के बाद I

पिता तो बहुत पहले ही 

दूसरी शादी करके कोलकाता में बस गये थे 

जहाँ कभी गये थे मज़दूरी करने I

अलका मिडल पास थी

और सुमेर चौथी फेल I

अलग-अलग कारख़ानों में दिहाड़ी करते हुए

कई बार ऐसा हुआ कि दोनों को काम मिला

एक ही जगह

और कई बार तो शिफ़्ट भी एक ही मिल जाती थी I

अलका को साइकिल चलाना सिखाया सुमेर ने

अपनी पुरानी खड़खड़हिया साइकिल पर I

कुछ पैसे जोड़ जब अलका ने कसवाई अपनी साइकिल

तो सुमेर गया था साथ I

घटने पर पौने चार सौ रुपये उधार भी दिये I

बार-बार कहने पर भी सिर्फ़ दो सौ ही वापस लिए I

अलका कई बार उसके लिए भी

रोटी लेती आती थी

जब दोनों काम करते होते थे एक ही फ़ैक्ट्री में I

फिर दिल से दिल मिलने में

बस दो महीने लगे I

समय ही कुछ ऐसा था

इंसानों का  और रिश्तों का इम्तिहान लेने वाला

कि विपत्ति झेलते अकेले लोगों का

गहराई से आपस में प्यार कर बैठना

कोई अचरज की बात न थी I

कोरोना का कहर बरपा था पूरे देश में I

मज़दूर अधिकतर लौट गये थे अपने गाँव I

अलका और सुमेर भला कहाँ जाते! 

आफत भरे दिन काटने थे साथ-साथ I

दु:ख इम्तिहान लेते हैं लेकिन

अक्सर लोगों को क़रीब भी ला देते हैं I

इसतरह अलका और सुमेर एक दूसरे के हुए I

कोर्ट में शादी हुई I

साथी-संघाती गवाह बने I

रात को मुर्गा कटा, जश्न मना I

अलका ने 'जब प्यार किया तो डरना क्या' गाना गाया I

सुमेर ने 'चलो दिलदार चलो' गाया I

पुरानी फ़िल्मों के गाने दोनों को पसन्द हैं I

सुमेर के संघाती गनेसी को 

जब बिना बकाया भुगतान किये

एक फैक्ट्री से निकाला गया 

तो दोनों साथ-साथ फैक्ट्री गेट पर

धरने पर बैठे थे पिछले साल I

अब कमरे में भगतसिंह का एक फोटू भी

टाँग लिया है दोनों ने I

मई दिवस का परचा भी बाँटा था पिछले साल

रोशनाबाद, पठानपुरा और अनेकी में

घूम-घूमकर I

ठेकेदार, दुकानदार, सुपरवाइजर

सब कहते हैं, "बहुत उड़ रहे हैं आजकल दोनों

माथा घूम गया है!"

दुखों का इतिहास अगर एक हो

और वर्तमान भी अगर साझा हो

तो प्यार कई बार ताउम्र ताज़ा बना रहता है

सीने के बाँयी ओर दिल धड़कता रहता है

पूरी गर्मजोशी के साथ

और इंसान बार-बार नयी-नयी शुरुआतें 

करता रहता है I

अलका और सुमेर आजकल

मज़दूरों के हक़ और इंसाफ़ की बातें करते हैं

और बेहद कठिन ज़िन्दगी जीते हुए भी

ख़ुश रहते हैं I

अभी रात को साढ़े दस  का समय हो रहा है

बस्ती सो रही है और अलका और सुमेर

अपनी कोठरी में खाना पकाते हुए

'ज़िन्दगी एक सफ़र है सुहाना' गा रहे हैं I

 

(तीन)

छोटा पाकिस्तान

 गफूर मियाँ की साइकिल मरम्मत की गुमटी है

रोशनाबाद में I

रहते हैं पठानपुरा में जिसे अब पठानपुरा कोई नहीं कहता

सभी छोटा पाकिस्तान कहते हैं I

गफूर मियाँ रोज़ाना छोटा पाकिस्तान से

आज के हिन्दुस्तान आते हैं

और हिन्दू-मुसलमान, सभी मज़दूरों की

साइकिलों की मरम्मत करते हैं

पंक्चर साटते हैं I

पठानपुरा पहले शायद पठानों का कोई गाँव रहा होगा

जो अब शहर का हिस्सा है

एक  मज़दूर बस्ती बस गयी है वहाँ I

वहाँ के अमीर मुसलमानों के बेड़ों में

कुछ सस्ते में और आसानी से गाँवों से आये

उन ग़रीब मुसलमानों को जगह मिल जाती है

जो सिडकुल के कारख़ानों में काम करते हैं I

हालाँकि कुछ हिन्दू मज़दूर भी रहते हैं

पठानपुरा में और कुछ मुसलमान मज़दूर

रोशनाबाद में भी I

रोशनाबाद में शाखा भी लगती है

और ख़ास मौक़ों पर भगवा झंडे के साथ

जुलूस भी निकलते हैं

जिनसे हालाँकि दलितों के खित्तों के 

रहवासी दूर ही रहते हैं

लेकिन ठेकेदारों, दुकानदारों, बेड़ों के मालिकों

और कुछ बाबुओं के बेटों के साथ ही

कुछ नौजवान हिन्दू मज़दूर भी हिस्सा लेते हैं I

कुछ मनबढ़ लड़के कहते हैं गफूर मियाँ से,"चचा

अपनी गुमटी तुम लगाओ अब छोटे पाकिस्तान में

या फिर सीधे पाकिस्तान ही चले जाओ!"

गफूर मियाँ हँसते हैं टूटे दाँत दिखाते हुए

दाढ़ी खुजाते हुए, फिर कहते हैं,"बेटा, हमरे 

अब्बा को तो पाकिस्तान जाना मंजूर नहीं हुआ

और हम तो एहीं की पैदाइस हैं, बिजनौर के I

अब तो पाकिस्तान वाले भी हमें न लेंगे

पिछवाड़े लात मार भगा देंगे I

ई तो तुम सबकी किरपा है कि हमरी खातिर

कै-कै ठो छोटा पाकिस्तान बनाय दियेन I"

लड़कों के जाने के बाद थोड़ी देर

चुप रहे  गफूर मियाँ

 फिर मेरी ओर मुड़कर बोले

"बिटिया, मेरा बेटा बंबई में मजूरी करता है I

नालासोपारा की जिस झुग्गी बस्ती में रहता है

उसे भी अब लोग छोटा पाकिस्तान कहते हैं I

ओरिजिनल नाम लक्ष्मीनगर था, फिर

पुलिस वालों ने यह नाम दे दिया

और अब यही चलता है I"

एक लम्बी साँस लेते हैं गफूर मियाँ

फिर कहते हैं,"पाकिस्तान तो हम गये नहीं

मगर अब लगता है पाकिस्तान से आये रिफूजी हैं

रिफूजी कैम्प में रहते हैं I"


 

(चार)

 भाषा का डर

 तीन साल बाद अनवर  रोशनाबाद से निकला था ।

राबिया और रफ़ीक़ के साथ ट्रेन में

सफ़र कर रहा था ।

रिज़र्वेशन भी कराया था इसबार ।

हरिद्वार से छपरा तक लम्बा सफ़र था ।

खाना-पानी सब साथ था ।

डिब्बे में बैठा हुआ अनवर 

खिड़की से सटकर खड़े सात साल के बेटे को

 स्टेशन के छोर पर लगे बोर्ड पर 

हिन्दी, अंग्रेज़ी और उर्दू, तीनों भाषाओं में लिखे

स्टेशन का नाम पढ़वाता था ।

बेटा पढ़ देता था जोड़-जोड़कर, थोड़ा रुक-रुककर

और राबिया निहाल हो जाती थी कि हाय रे

इत्ता छोटा सा तो है मेरा गुड्डा और तीन ज़ुबान

पढ़-बोल लेता है ।

राबिया की ख़ाला का इंतक़ाल हो गया था

और अनवर फ़ैक्ट्री से छुट्टी लेकर

ससुराल जा रहा था बीवी-बच्चे के साथ ।

सामने की सीट पर बैठे चार लोगों में से एक ने

पहले अपनी आस्तीन चढ़ाई

फिर मूँछों पर ताव देते हुए बोला

हिन्दुस्तान में सिर्फ़ हिन्दी भाषा ही चलनी चाहिए ।

दूसरे ने कहा, संस्कृत जिन भाषाओं की जननी है

वो सब भी चलनी चाहिए ।

तीसरे ने कहा, हिन्दी हिन्दुओं की भाषा है

लेकिन हिन्दुस्तान में रहने वाले हर आदमी को

हिन्दी ही लिखना-बोलना चाहिए

क्योंकि हिन्दुस्तान सबसे पहले हिन्दुओं का देश है ।

उर्दू-अरबी-फारसी पर तो एकदम बैन लग जाना चाहिए ।

किनारे बैठे आदमी के हाथ में एक हिन्दी अख़बार था

जिसमें हरियाणा के बाद बिहार के सिवान ज़िले में

गोतस्करी के शक़ में एक शख़्स को भीड़ द्वारा

पीट-पीटकर मार डालने की ख़बर थी । 

अनवर सोच रहा था कि क्या अब गाय की तरह

भाषा भी भीड़ के हाथों पीट-पीटकर

मार दिये जाने का सबब बन जायेगी!

राबिया बस डरी थी, कुछ नहीं सोच रही थी

और दूसरी ओर बैठा एम. ए. हिन्दी का एक छात्र

सिर्फ़ यह याद करने की कोशिश कर रहा था कि

भाषा के इस सवाल पर भारतेंदु, रामचन्द्र शुक्ल

महावीर प्रसाद द्विवेदी, डा. नगेन्द्र

हजारीप्रसाद द्विवेदी, नामवर सिंह

और पंडित विद्यानिवास मिश्र आदि

विद्वानों के क्या विचार थे! ●

 

 

(पाँच)

तब तो अच्छी बात है! 

 वह जनवरी महीने की आखिरी इतवार की

शाम थी और जाड़े का मौसमI

दिन में थोड़ी बारिश हुई थी

कमरे में ठण्ड और नमी थीI

मोती, सुमेर, अलका, नवीन, कलावती

गिरधारी, रामसमुझ, श्रवण, रमाशंकर, इस्माइल

और भी दो-तीन थेI

कुछ की छुट्टी थी और कुछ ने ले रखी थीI

वह हमारी राजनीतिक पढ़ाई का दिन थाI

काम हो चुका था और भोजन भी

और गपशप की बारी थी

जो जारी थी कि मैंने 

बुद्धिजीवियों और मज़दूरों की बातें करते-करते

उनके बारे में कुछ आख्यानात्मक और

कुछ व्यंग्य और ठिठोली वाली 

और कुछ थोड़ी गंभीर सी कविताएँ

यूँ सुनानी शुरू कर दी जैसे डायरी में दर्ज

यूँ ही सी कुछ बातें होंI

सुनकर सब चुप रहेI

सन्नाटा रहा कुछ देरI

फिर एक ने कहा, "यह तो कविता जैसी बातें हैं

मतलब बातों को असरदार बनाने का

यह भी अच्छा तरीका हैI"

दूसरे ने कहा,"कविता तो ज़रा दूसरे तरह से

बनाई जाती है, मुझे तो लगता है

उसमें बातें टूट-फूट जाती हैंI

ऐसी बातों को मिलाकर कहानी की किताब

बनाई जा सकती हैI"

तीसरे ने कहा, "अरे जो भी हो लेकिन सुनना

अच्छा लग रहा था

सुनते हुए मन में विचार आ रहे थे

अभी भी आ रहे हैंI"

चौथे ने कहा,"आप तो मेहनत करें तो

लेखक और कवि भी बन सकती हैंI"

नवीन फिर  हँसा और बोला, "अरे, ये कविता ही सुना रही थींI

आजकल इसी टाइप से कविता बनाई जाती हैI

मतलब कि उसमें बस कविता जैसी बात भर होती है

स्टाइल कुछ ख़ास नहीं होती है

ना कोई दिखावटीपन, ना कोई बनावटीपन

ना कोई टिटिंभा

लेकिन बात दिल में लग जाती है और आदमी

कुछ सोचने लगता हैI"

सबका कहना था कि अगर ऐसा है

तब तो बड़ी अच्छी बात है! ●

 

 

(छ:)

रामलौट

 रामलौट लगाते हैं चाय का ठेला

सिडकुल, हरिद्वार में I

सोलह की उम्र में सिवान जिला के 

बड़कागाँव से गये थे दिल्ली I

अब चालीस का होने को आये I

शादी हुई बीस की उमर में I

पाँच साल बाद बीवी मरी डेंगू से

तीन साल का बेटा छोड़

नवीन जिसका नाम था I

फिर पाला उसे रामलौट की विधवा बहिन ने

तीन साल तक I

गरमी के दिन थे जब उसे डँस लिया

गोंइठे में छिपे बैठे गेंहुअन ने I

झाड़फूँक हुआ

चार कोस दूर सिवान लेकर भागे

पर बच न सकी I

ख़बर सुन आये भागे हुए रामलौट लुधियाना से

और वापस लौटे छ: साल के बेटे को

छाती से चिपकाये हुए I

 गाँव से नेह-नाता की आख़िरी डोर टूट गयी I

तबसे रामलौट भटकते रहे 

शहर-दर-शहर 

बेटे को लिए साथ-साथ I

बेटे को छोड़कर किसी मज़दूर साथी के घर

जाते थे काम पर I

कई घरों  की रोटी खाते

कई शहरों की मज़दूर बस्तियों में

सड़कों पर खेलते-बौंड़ियाते

बड़ा हुआ नवीन I

गनेसी, पुरंदर, पवित्तर, रामसमुझ, गिरधारी

हीरा, हरिराम जैसे रामलौट के कई संघातियों की पत्नियों को बूआ, काकी या मौसी कहता था

बचपन में

उनको अभी भी याद करता है I

अक्सर फोन करता है

गाहेबगाहे मिलने भी चला जाया करता है I

दस बरस की उमर से घर के कामकाज में

हाथ बँटाता है, भात-रोटी-दाल पका लेता है I

अब अठारह का होने को है

इस साल बारहवीं की परीक्षा देगा I

भगतसिंह की तस्वीर वाला

स्पोर्ट्स शर्ट पहनता है

नौजवान भारत सभा वालों के साथ घूमता है

भगतसिंह पुस्तकालय में नियमित बैठता है

सुबह लड़कों को पीटी-परेड कराता है

हफ्ते में तीन दिन सावित्री फुले अध्ययन केन्द्र में

बच्चों को पढ़ाता है I

अक्सर भगतसिंह की और तरह-तरह की

दूसरी किताबें पढ़ता है आजकल I

रामलौट से कहता है, "बापू

मज़दूर क्रान्ति  के काम में

तुमको भी हाथ बँटाना चाहिए

यह भगतसिंह का बताया रास्ता है

और मार्क्स और लेनिन का भी I"

रामलौट हँसते हैं I

अब दोपहर बाद, ठेले पर नवीन

रामलौट का हाथ भी बँटा देता है

गिलास धोता है, गाहक मज़दूरों को

चाय के गिलास पकड़ाते हुए

पालिटिक्स भी ख़ूब बतियाता है I

जब सीज़न में माँग बहुत होती है

तो इस-उस फैक्ट्री में रात की दिहाड़ी भी

खट लेता है मर्जी मुताबिक

आठ-दस घंटे के सात-आठ सौ कमा लेता है I

जब रामलौट कहते हैं, "नाहक हाड़ गलाते हो

अभी तो मैं हूँ ही", तो उन्हें झिड़क देता है

पढ़े-लिखों की भाषा में कहता है

"बाप का खाकर नहीं होता है भगतसिंह का काम

बापू, अब मैं बड़ा हो गया हूँ I

और फिर काम करते हुए मैं फैक्ट्रियों में

काम की परिस्थितियों का अध्ययन करता हूँ I

मज़दूरों को जगाने के लिए

दलालों को भगाकर इंक़लाबी यूनियन

और संगठन बनाने के लिए

यह भी ज़रूरी है!"

रामलौट हँसते हैं

कभी कभी थोड़ा चिन्तित भी होते हैं I

कई शहरों में जाँगर खटाया है रामलौट ने I

तरह-तरह के कारख़ानों में हाड़ गला  चुके हैं I

पहले चाँदनी चौक, दिल्ली में पल्लेदारी की

रिक्शा भी चलाया I

फिर वज़ीरपुर के एक गरम रोला कारखाने में 

काम किया 

और वहाँ एक हड़ताल के बाद जब निकाल बाहर किये गये तो

थोड़ी सी जोड़ी गयी रकम

और कुछ संघातियों के साथ उन्होंने पंजाब का रुख किया I

मण्डी गोबिंदगढ़ में किया पहले स्क्रैप कटिंग का काम I

फिर स्टील रोलिंग मिल में पसीना बहाया

इंडक्शन भट्ठी पर I

लुधियाना में दो साल साइकिल कारखाने में भी

काम किया I

धारूहेड़ा में भी कई कारखानों में काम किया I

मज़दूरी का आख़िरी काम किया मानेसर की

एक ऑटो स्पेयर पार्ट्स फैक्ट्री में

जहाँ पावर प्रेस मशीन पर काम करते हुए

उनके बाँये हाथ की दो उँगलियाँ कट गयीं I

हरजाने के नाम पर बस मिले दस हज़ार रुपये I

पुलिस और लेबर डिपार्टमेंट के साथ

मालिकों की मिलीभगत थी I

हुआ ही करती है I

फिर वहीं से शिवधनी उन्हें अपने साथ

सिडकुल, हरिद्वार लेकर आया और

दौड़धूप करके चाय का ठेला लगवाया

बचपन का मीता जो था! 

सिवान का ही रहने वाला था, बलेथा गाँव का I

रामलौट का ठेला दिहाड़ी मज़दूरों का अड्डा है

और कलावती  उनकी डेली की गाहक है I

रोज़ लंच के टाइम अपनी टोली के साथ आती है

मैगी खाकर चाय पीती है I

शाम को फिर चाय पीने आती है

तो बैठकर रामलौट से और चाय पीते

परिचित मज़दूरों से ख़ूब बतियाती है

रामलौट से ठिठोली भी करती है I

रामलौट बहुत धीरे कभी कुछ बोलते हैं

कभी मूँछों बीच चुपचाप मुस्काते रहते हैं I

कलावती को कौन नहीं जानता ! 

तेरह साल से रहती है रोशनाबाद में I

पाँच साल से एक ही कारखाने में

काम कर रही है लेकिन परमानेंट नहीं हुई

जैसा कि आमतौर पर मज़दूरों के साथ यहाँ होता है I

आजकल कलावती औरत मज़दूरों की

यूनियन बनाने के लिए रात को

अपनी कोठरी में उनकी मीटिंग करती है I

सभी ठेकेदार, दलाल, दुकानदार और

बेड़ों के मालिक कहते हैं, "नौजवान भारत सभा वाले

रामलौट के लौंडे को बिगाड़ रहे हैं

और उनके साथ वाली जो लड़की

यहाँ कई-कई दिनों तक अड्डा जमाये रहती है

वही कलावती को यूनियनबाज़ी सिखा रही है I

कलावती तो हमेशा की मनबहक और 

कंटाइन है, गैंग बनाये है लड़कियों का I

उसके मुँह कौन लगे! 

इन्हीं माहौल बिगाड़ने वालों का 

कुछ करना होगा I"

कलावती के कानों तक पहुँचती हैं बातें 

तो कहती है, "कुछ करके तो देखें

परलय मचा देंगे!"

कलावती चौड़ी कद-काठी की औरत है

साँवली-सलोनी, आकर्षक और ताक़तवर है

उमर  पैंतीस की I

तेरह साल पहले नजीबाबाद के किसी गाँव से

भागकर आयी थी अपने आवारा-पियक्कड़ पति के 

हाथ-पैर तोड़ने के बाद I

फिर न उसे कोई खोजने-पूछने आया

न उसने कहीं जाने की सोची I

अब तेरह बरस के दौरान यहाँ-वहाँ कभी किसी से

दिल लगा भी तो जल्दी ही उचट गया I

इधर लोगों को लगता है और नवीन को भी

कि रामलौट और कलावती के बीच

कुछ तो है, भले ही अनकहा है I

नवीन कलावती को मौसी कहता है I

एक रात अपनी चौकी से उतर 

रामलौट की चौकी पर आकर लेट गया नवीन

और बचपन की तरह उनके गले में बाँहें डाल

मनुहार करता हुआ बोला, "बापू, कलावती मौसी के साथ

घर बसा लो, वह तुम्हारे दिल में रहती है

मैं जानता हूँ I

मुझे भी बहुत अच्छी लगती है, मानती भी बहुत है I

मैं अब बड़ा हो गया हूँ

मेरी चिंता छोड़ो, थोड़ा जी लो! 

कबतक  तपस्या करोगे!"

रामलौट हँसने लगे, फिर उसे धौल जमाकर

बोले, "चुप ससुर! 

बाप से ऐसी बातें करते हैं?"

नवीन रुका नहीं, कहने लगा, "दो कमरों वाला

घर लेंगे अब किराये पर! 

तुम तो शरमाते रह जाओगे, मुझे ही

बात चलानी होगी!"

अब जब भी फिर ऐसी बातें करता है नवीन

तो रामलौट कभी हँसते हैं, कभी चुप रहते हैं I

रामलौट चुप रहते हैं तो नवीन को

लगता है कि बात बन रही है! ●



कविता कृष्णपल्लवी

  • ·    विगत ढाई दशकों से भी अधिक समय से क्रान्तिकारी वाम धारा से जुड़ी राजनीतिक ऐक्टिविस्ट का जीवन।
  • ·       सम्प्रति हरिद्वार में स्त्री मजदूरों के बीच काम और देहरादून में सांस्कृतिक सक्रियता ।
  • ·       बरसों कविताएँ छिटफुट लिखने और नष्ट करने के बाद 2006 से नियमित कविता-लेखन ।
  • ·     हिन्दी की अधिकांश पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ प्रकाशित । नेपाली, मराठी, बांग्ला, अंग्रेज़ी और फ्रेंच में कुछ कविताएँ अनूदित ।
  • ·       एक संकलन 'नगर में बर्बर' वर्ष 2019 में परिकल्पना प्रकाशन से प्रकाशित ।
  • ·       'अन्वेषा' वार्षिकी 2024 का सम्पादन किया जो काफ़ी चर्चित रहा ।


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