शम्भु बादल की कविताएँ: युद्ध, पीड़ा और 21वीं सदी का जन-संघर्ष

Sushil Kumar
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युद्ध रुकेगा, कैसे ??

(विस्तारवाद, दमन,अत्याचार  के विरुद्ध संघर्षों में प्राण न्योछावर करने वाले शहीदों को नमन करते हुए उत्पीड़ित, संकटग्रस्त जनता के लिए यह कविता)

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नींद नहीं आ रही  

आंखें भरी-भरी हैं

बिजली भर-भर 

ज्वाला भर-भर

तूफानी घनघोर अंधेरा

बरस रहा 

दिन-रात 

सप्ताह बीते 

महीने गुजरे 

वर्ष गये

नए वर्ष की अंतिम सांसें भी 

अग्नि-मुक्त नहीं 


आंतरिक नीति 

रहस्यमयी 

प्रदर्शनी हो

ताकत की 

चर्चा हो

युद्ध-रोक की

पर, लड़ाई चलती रहे 

प्रोडक्ट्स बिकते रहें


कई-कई रूपों में युद्ध 

तांडव मचा रहा सर्वत्र 

शस्त्र-अस्त्रों की होड़ 

युद्धोन्माद गरम  

महायुद्ध की

सर्वनाश की आहट


बड़ी पूंजी का बड़ा खेल 

व्यापक पूंजी खेल रही है 

सब लूट-सब लूट 

‘माया महाठगनी‘


लोलुप के लुटेरे हाथ 

हर पल हैं सक्रिय

बाहर वेदना, अंदर उजास

कैसी चाल ?

हमें पता निर्मम सौदागर

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ऐ!

नये समय का नया सबेरा! 

जीवन की नूतन रंगीनी!

यौवन की हरी चमक!

बांसुरी की मीठी लय! 

नृत्य की गाती उमंग!

देखो-देखो, देखो

पैशाचिक हमले देखो 

मतान्ध हिंस्र देखो 

स्त्री-बच्चे-बूढ़े-बीमार-जवान के

कत्लेआम, अपहरण देखो 

सर-धड़  अलग देखो

पेटफाड़ बुलेट देखो

नाभिनाल-बद्ध 

खून में डूबे 

नवजात देखो 

जलते परिवार देखो  


वीभत्स क्रूरता देखो


गोलियों की बौछार देखो   

बमों की वर्षा देखो

मिसाइलों के घात देखो  

विस्फोटों की लपट देखो  

धुएं के बवंडर देखो

विद्यालयों के अंगार देखो  

अस्पतालों का दहकना देखो

रासायनिक मार देखो 

जैविक रोग देखो

थल-नभ-जल से 

बरसती आग देखो 

महानगरों का 

शहरों-गांवों का 

बागों-वनों का 

चिड़ियों-जीवों का जलना देखो

सुरक्षित सुरंग ? देखो 

मारक प्रवाह पानी का देखो


परमाणु की क्षमता देखो

बन्दर-हाथ उस्तरा देखो


लाल-लाल मिट्टी देखो 

राख-राख जमीन देखो 

सौंदर्य के कंकाल देखो

बन्दियों-घायलों के दर्द देखो

मां के चीत्कार देखो

अनाथ शिशु के रुदन देखो 

मलबे की कराह देखो

आंसू की नदियां, स्रोत देखो

सूखे कंठ की प्यास देखो

बेचैन भूख की भूख देखो


लाखों के पलायन देखो   

विविध भीषण कष्ट देखो

कुचले सपनों की आह देखो

छूटते घरों की पुकार देखो 

थके रास्तों की बात देखो


देशों के गुट देखो 

अपने-अपने हित, द्वेष  देखो

व्यक्त्ति के अहं देखो

विश्व की विवशता देखो


यूक्रेनी की

फलस्तीनी की 

यहूदी की

दुनिया-भर के जन-जन की

पीड़ा देखो  

 

पीड़ा-बीच शौर्य देखो

दोपहर के सूर्य देखो

विजय-गान करो

मार्च करो

और तीखे युद्ध करो

निश्चित है

मनुष्यता की जीत


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प्यारे लोगो! 

जब सायरन बजता है 

दहशत के बाज 

माथों पर मंडराते हैं 

कैसा लगता है!?

बच्चों के मन 

कितने जख्मी होते हैं!?


हवा जहरीली

दंडित कर रही 


जख्म है

बीमारी है 

दवा नहीं 

इलाज नहीं 

घर-अस्पताल नहीं 

खंडहर-ही-खंडहर हैं

 

गोली-बम जिंदा हैं

आदमी मर रहे

      

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सनक जीत की 

लाशें बिछ गईं 

हर वय को

गर्भ तक को 

अपंग कर गई

आकाश तक 

लहू पसरा है

सुबह सन्न है सूरज 

तुष्ट है निष्ठुर तानाशाह 

तृप्त है प्रभुत्व-पिपासु नेता

खुश है पाशविक आतंक

त्रस्त है उजड़ी जनता 

आह! सभ्यता का कलंक !!

जीवन-मूल्य का 

गला रुंधा है

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ये कब्रगाह 

ये खौफ 

चीख-चीख कर 

क्या कहते हैं ?

सुन लो जनरल!  

बर्बरता का शिकार

जनरल तुम्हें बनाया जाए 


चहकता घर

उत्साही समाज

हंसता देश उजाड़ना 

सांप्रदायिक हैवानियत

अक्षम्य अपराध हैं

जिसकी लाठी उसकी भैंस ! 

चलेगा क्या!?

उबलता क्रोध धधक रहा


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शांति

अशक्त है!

दुख

कितना गहरा! 

कितना फैला है! 


वसंत रुक गया 

कुदरत  विह्वल 

तारे लज्जित 

बहुत उदास हैं


इतनी रूढ़ियाँ!

इतने घेरे! 

इतने समूह!

इतने मत-मतांतर!

पर, मानव का आधार एक

मानवता

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ओह!

डबडबाये मन 

लड़नेवालो!

अपने परिवार, स्वयं को सुरक्षित रख

कौन तुम्हें कट्टर बना रहा,लड़ा रहा?

तुम्हारे कंधों पर बंदूक रख, चला रहा

उसके छिपे स्वार्थ पहचानो 


समझो 

क्षत-विक्षत है समय  

रुधिर से रंगा है अतीत

रंग रहा अभी 

अभी बचा लो 

भविष्य बचा लो

 

रूढ़ धर्म, 

‘अफीम‘ नहीं, हीरोइन है  

क्षेत्रवाद-नस्लवाद-संपत्तिवाद-

बद्ध विचार 

अमानवीय, संकीर्ण, विकृत मनोवृत्तियां हैं 

इनके लिए 

कपटी नेताओं के

युद्ध-चक्र में फंस

कितनी बार मरे हो !?

फिर भी

और-और 

मारने-मरने को आतुर!

     

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ड्रग्स के 

चक्र के

विकराल जाल

काट

दीवार धास

मानव हो 

विवेक-हृदय रख

मानव बने रहो 

धरती 

सब के लिए 

अपने-अपने क्षेत्र में रहने दो

प्रेम-दया-क्षमा 

दिल-दिल में बसने दो 

लोगों को 

आपस में जुड़ने दो 

अपने अधिकार 

मजबूती से लेने दो

सभी को 

जीने दो 

बढ़ने दो

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गौर करो 

वक्त की अंगड़ाई 


युद्ध रुकेगा 

युद्ध रुकेगा

विश्वव्यापी आत्म-प्रसार से 

शोषणहीनता, न्यायप्रियता से

बड़े दिल से युद्ध रुकेगा 

जन-बल से आतंक रुकेगा 


मानवता का  संविधान 

करुणा - समता  का शासन होगा 

उजाले का आदेश चलेगा

अंधकार का नाश होगा

न कोई समाज का

शेर-सियार  बनेगा

न कोई टोले-मोहल्ले का 

कुत्ता-गिरगिट 

सभी 

अनुशासित

विकसित 

उन्मुक्त 

प्रफुल्लित होंगे

तब युद्ध कभी न होगा

कभी न होगा


लेकिन 

ये सब कैसे???


मुस्कान दें


हम चलें 

खरपतवार हटा

उन्हें 

नव जीवन दे

खुशी के बीज

बोएं

विविध पौधे 

रोपें

उदास मौसम को 

मुस्कान दें



बिवाई पड़ी है


समाज में 

बिवाई पड़ी है 

क्यों पड़ी है बिवाई?


हाल-चाल


हाल-चाल क्या है?

आस्तिक पीढ़ी!

चार्वाकीय पीढ़ी!

बौद्ध पीढ़ी!

माकर््िसस्ट पीढ़ी!

और-और पीढ़ियां!

अब

किसे

कहां 

क्या

बदलना है?

किस तरह से 

क्या करना है?


पत्तियाँ हरी होंगी


क्षुद्रता के बड़े-बड़े टीले

अंधेरे में लोग 

उजाले 

कई - कई उजाले 

किसने लूट लिए?

प्रेम के पंख

कई - कई पंख

किसने नोचे?

सब इन्हें जानते हैं 

फिर भी 

कुछ कर नहीं पाते

मौन बने रहते हैं 


बल के आगे 

अपना बल

आवाज के साथ

लाना ही होगा 

         पत्तियां तब हरी होंगी।

...........................................................

शम्भु बादल की कविताएँ अपने समय की ऐतिहासिक बेचैनी को सड़क की बोली, जन-संवादी लय और तीखे दृश्य-विधान में दर्ज करती हैं। इनके केंद्र में युद्ध, दमन, विस्थापन और सामाजिक विघटन की विराट कथा है, जिसके बरक्स कवि बार-बार जीवन, करुणा और पुनर्निर्माण की दिशा में पाठक को मोड़ता है। शब्दों की बनावट में घोषणात्मक ताक़त है, पर उसमें एक मानवीय स्पंदन भी साथ-साथ चलता है; इसी से ये कविताएँ भाषण नहीं बनतीं, जन-अनुभव का दस्तावेज़ बनती हैं।

युद्ध रुकेगा, कैसेनौ खंडों का विस्तृत काव्य है जो पाठक को सीधे युद्धभूमि के बीच पहुँचा देता है। शुरुआती अनुच्छेद में समय की इकाइयाँदिन, सप्ताह, महीने, वर्षएक लम्बी सुरंग की तरह खुलती जाती हैं; लगता है जैसे सभ्यता की धड़कन पर अनवरत बमवर्षा टिकी हो। कवि सत्ता और बाज़ार की मिलीभगत का चेहरा उघाड़ते हुए कहता है—“बड़ी पूंजी का बड़ा खेल / व्यापक पूंजी खेल रही है”—और इसी के समानान्तर दृश्य-श्रृंखला तेज़ होती चलती है। देखो-देखोकी आवृत्ति आँख को पकड़ लेती है; यह अनाफ़रा कविता की ताल बन जाता है और पाठक का ध्यान बार-बार वीभत्सता की ओर लौटाता है। एक-एक फ्रेम ऐसे खुलता है मानो समाचार-रील उलट रही हो—“नाभिनाल-बद्ध / खून में डूबे / नवजात देखो”, “विद्यालयों के अंगार देखो”, “अस्पतालों का दहकना देखो”, “थल-नभ-जल से / बरसती आग देखो”—दृश्य इतने घने और ठोस कि पढ़ते ही देह में धुआँ भरता हुआ लगे।

यह लिरिकल-रिपोर्टाज शैली आगे चलकर अभियोग में बदलती है। शिल्प की दृष्टि से पंक्तियाँ छोटी, कंटीली और क्रिया-प्रधान हैं—“गोलियों की बौछार देखो / बमों की वर्षा देखो / विस्फोटों की लपट देखो”—जहाँ व्यंजन-ध्वनियाँ एक प्रकार का परकशन (Percussion) रचती हैं; ‘’, ‘’, ‘’, ‘की ठक-ठक कविता को आंतरिक ताल देती है। सूचीयुक्त संरचना कवि को व्यापक भूगोल समेटने की शक्ति देती हैमहानगर से गाँव, बाग़ से वन, सुरंग से समुद्र; हर जगह एक ही दहकती परत। बीच-बीच में वाचिक संबोधन—“प्यारे लोगो!”, “देखो-देखो”—डायरेक्ट अपील को स्थापित करता है, जिससे पाठक एक साक्षी नहीं, सहभागी बनता है। नैतिक केंद्र वहाँ सघन होता है जहाँ कवि हथियारबंद उन्माद के पीछे छिपे स्वार्थ को पहचानने की हिदायत देता है—“तुम्हारे कंधों पर बंदूक रख, चला रहा / उसके छिपे स्वार्थ पहचानो।कविता का ताप यहीं अपना जनतांत्रिक स्वर पाता है।

इसी परिप्रेक्ष्य में मुस्कान देंअलग रोशनी लेकर आती है। विनाश के धुएँ के बाद हवा बदलती है और भाषा में उद्यान-विज्ञान के रूपक उगते हैं—“खुशी के बीज बोएँ / विविध पौधे रोपें।आदेशात्मक क्रियाएँ यहाँ भी हैं, पर उनके भीतर कोमलता बसी है; यह आह्वान कठोर न होकर आत्मीय है। ध्वंस की राख में अंकुर फूटने का आश्वासन बुनते हुए कविता सामाजिक चिकित्सा का व्यावहारिक नक़्शा देती हैखरपतवार हटाना, मिट्टी को हवा देना, सूखी ऋतु में पानी पहुँचाना। युद्ध-विमर्श से निकली यह बाग़बानी भाषा दरअसल सामुदायिक पुनर्निर्माण का सौंदर्यशास्त्र है; मुस्कान कोई भावुक शब्द नहीं, जन-जीवन की नयी संस्थागत ऊर्जा का संकेत बन जाता है।

बिवाई पड़ी हैआकार में छोटी, असर में भारी कविता है। यहाँ कवि समाज के फटते तलवों की छवि से हमारे सांस्कृतिक देह के छिलते हिस्सों को छूता है। बिवाई का बिंब सूखा, श्रम और पीड़ातीनों को एक साथ बाँधता है। प्रश्न—“समाज में / बिवाई पड़ी है / क्यों पड़ी है बिवाई?”—स्थगित उत्तर की तकनीक से काम करता है; कवि समाधान नहीं थोपता, पाठक को आत्ममंथन की दिशा देता है। शिल्प में विराम महत्त्वपूर्ण है: कम शब्द, अधिक सफ़ेद जगह, ताकि चुप्पी भी बोले। यही मितव्ययिता कविता को यादगार बनाती है; यह वही कारीगरी है जहाँ एक ठोस प्रतीक पूरी वैचारिक बहस संभाल लेता है।

हाल-चाल क्या हैवैचारिक परंपराओं की चौपाल रचती है। मंच पर एक-एक कर आवाज़ें आती हैं—“आस्तिक पीढ़ी! / चार्वाकीय पीढ़ी! / बौद्ध पीढ़ी! / मार्क्सिस्ट पीढ़ी!”—और वातावरण में एक साथ उत्सव और ऊब दोनों का कंपन सुनाई देता है। विस्मयादिबोधक और प्रश्नवाचक चिह्न कविता को नाटक की तरह गतिशील बना देते हैं। यह सूचीकरण तथ्यों का एलान भर नहीं, अनुष्ठान-सा प्रदर्शन है, जहाँ पीढ़ियों का रेला निकलता है, पर दिशा का धुंधलापन बना रहता है। बादल यहाँ विश्वविद्यालयी विमर्श से दूरी रखते हैं; आवाज़ किसी नागरिक मंच से बुलाती लगती है, जहाँ सिद्धांत अनुभव की बेंच पर बैठकर जवाब देते हैं। यही वाचिकता कविता को जीवंत बनाती है; विचारधाराएँ ग्रंथालय के पन्नों से उठकर मोहल्ले की बहस में उतर आती हैं।

पत्तियाँ हरी होंगीइन सबके बीच भविष्य की ओर खुली खिड़की है। भाषा में हरियाली लौटती है; स्वर अधिक मृदु पर आश्वस्तकारी। कवि पूछता है—“प्रेम के पंख / कई-कई पंख / किसने नोचे?”—और इसी प्रश्न में इलाज छिपा है; प्रेम के पंख वापस लगाने की सामूहिक कोशिश। वाक्य रचना एक लयात्मक आश्वासन रचती हैछोटे वाक्य, सधे हुए ठहराव, फिर एक स्पष्ट उद्घोष: पत्तियाँ हरी होंगी। यहाँ आशा किसी अमूर्त धर्मोपदेश की तरह नहीं आती; इसके पीछे सामाजिक कर्मठता, आपसी भरोसा और नागरिक साहस का ठोस आग्रह मौजूद है। परिणामस्वरूप कविता उजाले की तरफ़ झुकती है, पर आँखें अँधेरे को लगातार याद रखती हैं; इसी स्मृति से उसकी विश्वसनीयता बनती है।

इन पाँचों कविताओं का संयुक्त कलात्मक मूल्य उनकी वाचिक बनावट, सूचीयुक्त संरचना, तीखी दृश्यात्मकता और जन-संबोधन में निहित है। देखो”, “गौर करो”, “मार्च करो”, “चलें”—ये क्रियाएँ ढोलक की तरह धुन रचती हैं। ध्वन्यात्मक स्तर पर ’, ‘’, ‘’, ‘की लगातार आवृत्तियाँ पंक्तियों में युद्ध का परकशन(Percussion) पैदा करती हैं, वहीं मुस्कान”, “बीज”, “पत्तियाँजैसे शब्द उसी परकशन (Percussion) पर नई धुन जोड़ते हैं। पंक्तियों का छंद मुक्त है, पर आंतरिक लय स्पष्ट; अनाफ़रा, समान्तर वाक्य-रचना और कटे-फटे टुकड़ों का क्रमबद्ध संयोजन कविता को सिनेमाई गति देता है। कई जगह कवि बिंब का ताप अचानक बढ़ा देता है—“लाल-लाल मिट्टी”, “राख-राख ज़मीन”, “धुएँ के बवंडर”—ये शब्दचित्र पाठक की देह को प्रत्यक्ष अनुभूति में ढकेल देते हैं।

शिल्प का एक और पहलू हैवृहद भूगोल और सूक्ष्म देह-अनुभव का साथ-साथ आवागमन। एक पंक्ति में शहर-गाँव-वन का पट खुलता है, तो दूसरी पंक्ति में एक माँ का चीखता गला, एक नवजात का खून से भीगा शरीर, एक थका हुआ रास्ता जो बोल उठता है। इस तकनीक से कविता अपने नैतिक तर्क को संवेदना के अंदर रोप देती है; पाठक विचार पर नहीं, अनुभव पर तर्क करता है। जहाँ प्रतिरोध का स्वर उग्र है, वहीं भाषा किसी कड़वे व्यंग्य से बचती है; निशाना व्यक्ति नहीं, हिंसा की मशीनरी है। परिणामस्वरूप कविता का क्रोध निजी वैमनस्य में नहीं फिसलता; वह जन-हित की आलोचना बनकर कायम रहता है।

पाठक के लिए सबसे उपयोगी बात यह है कि ये कविताएँ किसी एक भाव पर टिकी नहीं रहतीं; शोक, आक्रोश, करुणा और आशासभी का सम्मिलित रसायन रचती हैं। सूची, संबोधन, दृश्य और प्रतीकये चार औज़ार सबसे प्रभावी ढंग से काम करते हैं। सूची व्यापकता देती है, संबोधन नैतिक तात्कालिकता, दृश्य देहगत अनुभूति, और प्रतीक स्मरणीयता। इसी बहुस्तरीय कारीगरी से शम्भु बादल की कविताएँ हमारे समय की समेकित गवाही बन पाती हैं, जहाँ युद्ध के बीच भी मनुष्य और भाषा बच रहे हैं, और बची हुई वही लीला आगे की सदी के लिए उम्मीद की जलधारा बनकर बहती है।

शम्भु बादल की ये कविताएँ 21वीं सदी की हिंदी कविता की प्रतिनिधि हैं, क्योंकि इनमें वैश्विक युद्धों, पूँजी के विस्तार, विस्थापन और सामूहिक त्रासदी का प्रत्यक्ष चित्र है। यह वह समय है जब कविता महज़ सौंदर्य या निजी संवेदना तक सीमित नहीं रहती, बल्कि विश्व राजनीति और आम जनता की पीड़ा को अपनी भाषा में समेट लेती है। इन कविताओं की वाचिक शैली, दृश्यात्मक तीखापन और जनपक्षधर स्वर उन्हें समकालीन कविता के मुख्य प्रवाह से जोड़ते हैं। यही वजह है कि ये रचनाएँ 21वीं सदी के अशांत यथार्थ और जन-संघर्ष का सशक्त प्रतिनिधित्व करती हैं। 

- सुशील कुमार/ मो न 7004353450 







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3 टिप्पणियाँ

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  2. सभी कवितायें अपने समय और समाज की फ़िक्र करती प्रतिरोधात्मक कवितायें हैं। "युध्द रुकेगा कैसे" साम्राज्यवादी और साम्प्रदायिक शक्तियों पर सटीक प्रहारक कविता है। वहीं "मुस्कान दें" और "बिवाई"'कविता समाज में समरसता के मूल्य स्थापित करने के लिये फूट के कारणों को जानने का प्रयत्न करती हैं। शम्भू बादल की प्रतिबद्धता इन कविताओं में स्पष्ट परिलक्षित होती है। उन्हें बहुत बहुत बधाई

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  3. आपका यह आलेख आलोचना के क्षेत्र में एक नया प्रतिमान रचता है। यह कविता के अंतःकरण की बारीकियों को बड़े स्पष्ट ढंग से मूर्तित करने के साथ ही उसकी बनावट की परतों को खोलकर एक खास अंदाज में सामने लाता है। लोकोन्मुखी दृष्टि, विश्लेषणात्मक सजगता, विशिष्ट भाषा- शैली और सघन अभिव्यक्ति के कारण इसे सम्हल कर पढ़ने की जरूरत महसूस होती है। इस महत्वपूर्ण रचना के लिए हार्दिक बधाई। कविताओं पर विशेष ध्यान देने के लिए आभार।
    - शम्भु बादल

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