“सच कहना यूँ अंगारों पर चलना होता है” — एक समीक्षा (सुशील कुमार)
डॉ. डी. एम. मिश्र की नई पुस्तक “सच कहना यूँ अंगारों पर चलना होता है” हिंदी जनवादी चेतना का महत्त्वपूर्ण
ग़ज़ल-संग्रह है। किताब का शीर्षक अपने भीतर उस ताप और संकल्प को समेटे हुए है
जिससे कवि ने सामाजिक विवेक को प्रकंपित किया है। यह शीर्षक यूँ ही नहीं चुना गया; यह कवि के अनुभवजन्य सत्य का निचोड़ है
कि सच कहना हमेशा जोखिम उठाना है — और
यही जोखिम कविता का धर्म है। जब श्री मिश्र ने यह संग्रह मुझे पढ़ने के लिए भेजा
था, तब तक पुस्तक का शीर्षक तय नहीं हुआ था
और वे ऊहापोह में थे कि कौन-सा नाम रखा जाए। मैंने जो शीर्षक सुझाया, वह उन्हें पसंद आया और वरिष्ठ कवि शम्भु
बादल ने भी इस शीर्षक की सराहना की, जब
उन्होंने इस पुस्तक का ब्लर्ब लिखा।
शम्भु बादल अपने ब्लर्ब में डी. एम. मिश्र की
ग़ज़लों की तुलना उस बीज से करते हैं जो धरती फोड़कर बाहर आता है, बढ़ता है और पूर्ण यौवन प्राप्त करता
है। उनके अनुसार, मिश्र की ग़ज़लें हलचल-युक्त चेतना से
जन्म लेती हैं और उनमें जनपक्षधरता तथा सच्चे मनुष्य की पक्षधरता रग-रग में
व्याप्त है। वे मानते हैं कि मिश्र ने समकालीन हिंदी ग़ज़ल को अधिक लोकोन्मुख, संवेदनशील और समृद्ध बनाया है।
त्रिलोचन और मानबहादुर सिंह जैसी परंपरा की भूमि में रहते हुए उन्होंने दुष्यंत
कुमार और अदम गोंडवी की जनवादी परंपरा को नए सामाजिक-राजनीतिक आयामों तक पहुँचाया
है। बादल जी का कहना है कि मिश्र की दृष्टि में दृश्य या प्रत्यक्ष ही पूरा सत्य
नहीं होता, इसलिए वे मुखौटों और लूटवादी
प्रवृत्तियों का पर्दाफाश करते हैं और ‘सच को
सच’ कहने के अपने संकल्प से कभी पीछे नहीं
हटते। उनके शेर आम आदमी के संघर्ष, व्यवस्था
की विडंबनाओं और बाज़ारवाद के दबावों को तीखे व्यंग्य और सहज भाषा में व्यक्त करते
हैं। शम्भु बादल यह भी मानते हैं कि पारंपरिक इश्क़िया ग़ज़लों से भिन्न, मिश्र की ग़ज़लें जीवन के कठोर यथार्थ
को शिल्पगत दक्षता और बोलचाल की सादगी में सामने लाती हैं। वे उन्हें एक बाग़ी और
मज़बूत ग़ज़लकार के रूप में देखते हैं जो ‘काँटों
भरी डगर’ पर चलते हुए भी राख नहीं बनता। बादल जी
के अनुसार “सच कहना यूँ अंगारों पर चलना होता है” डी. एम. मिश्र की सौ से अधिक ग़ज़लों
का ऐसा संग्रह है जो अपने जन-सरोकार और सादगी के कारण व्यापक स्वीकृति का अधिकारी
बनेगा।
मिश्र की ग़ज़लों से गुजरते हुए मुझे भी प्रतीत
होता है कि यह संग्रह पाठक को किसी सौंदर्यवादी लोरी में नहीं, बल्कि यथार्थ की भट्टी में उतार देता
है, जहाँ हर शेर एक साक्ष्य बन जाता है।
इस संग्रह की आरंभिक ग़ज़ल — “सोचता हूँ प्यास ये कैसे बुझाऊँ / आग
के दरिया में क्यों न डूब जाऊँ” — कवि-स्वर
की दिशा स्पष्ट करती है। यहाँ प्यास निजी नहीं, सामाजिक
है — अन्याय और असमानता के विरुद्ध जलती हुई
प्यास। मिश्र का शेर “सच दिखाना फ़र्ज़ मेरा क्या करूँ मैं /
आईना हूँ मैं भले ही टूट जाऊँ” इस
पुस्तक का सारतत्व है। वे जानते हैं कि आईना टूटेगा, पर दिखाना उनका धर्म है। यही कारण है कि उनकी ग़ज़लें परंपरागत
शेरियत से आगे बढ़कर लोक-नैतिक प्रतिरोध रचती हैं।
जब कवि लिखता है — “जिनके घर में दौलत की वर्षा होती /
उनको क्या मालूम गरीबी क्या होती” — तो
यह केवल सामाजिक टिप्पणी नहीं, बल्कि
व्यवस्था के विरुद्ध आमजन की सिसकी का रूप है। यह स्वर दुष्यंत कुमार की परंपरा से
जुड़ता है, पर उसकी पुनरावृत्ति नहीं करता। मिश्र
की ज़मीन देसी है, लोक से उपजी है; इसलिए उसमें नारे का कोलाहल नहीं, जनजीवन की कसमसाहट है।
“शहर
ये जले तो जले लोग चुप हैं / धुआँ भी उठे तो उठे लोग चुप हैं” — यह शेर हमारे समय की सबसे करारी गवाही
है। कवि चुप्पी को अपराध के रूप में पहचानता है और यही पहचान उसे अपने दौर का
विवेकशील गवाह बनाती है।
मिश्र की भाषा में अद्भुत संतुलन है — न उर्दू का दंभ, न हिंदी का कठोर संस्कार। यह ऐसी
ज़ुबान है जो तहज़ीब और जनसरोकार का संगम करती है। “जो रो नहीं सकता है वो गा भी नहीं सकता” या “ईमान से बढ़कर के नहीं है कोई दौलत” जैसे शेर कविता को पाठकीय अनुभव का हिस्सा बना देते हैं। वे बड़े
मुहावरों या अलंकारों के सहारे नहीं चलते, बल्कि
बोलचाल की भाषा में विचार की ऊँचाई प्राप्त करते हैं।
इस संग्रह में राजनीति, नैतिकता और मनुष्यता पर गहरी चोट करने
वाले शेरों की बहुतायत है। “सत्ता
के लोभ ने उसे पागल बना दिया / नज़रों से फिर अवाम ने उसको गिरा दिया” या “कलई उतर गई हुआ नंगा समाजवाद” जैसी
ग़ज़लें आज के लोकतांत्रिक पतन की विवेचना हैं। कवि नारेबाज़ नहीं, साक्षी है — वह भीतर से बोलता है, जहाँ ईमान और आस्था का संवाद होता है।
मिश्र के यहाँ ग़ज़ल केवल भावनात्मक स्वर नहीं, विचार का औज़ार है। वे प्रश्न करते हैं
— “अगर क़लम में धार नहीं तो क्या मतलब /
वाणी में ललकार नहीं तो क्या मतलब”।
यह आत्मपरीक्षण है, जो हर सच्चे कवि के लिए चुनौती है। इसी
संग्रह में जब वे कहते हैं — “गुनाहों
से पर्दा कभी तो उठेगा / कहाँ तक कोई भाग करके बचेगा” — तो यह केवल धार्मिक कपट पर व्यंग्य
नहीं, सामाजिक न्याय की पुकार भी है।
इस पुस्तक की एक बड़ी विशेषता यह है कि यहाँ
समाज के हाशिए पर खड़े चरित्र — मज़दूर, औरत, किसान, कामवाली — सबकी आवाज़ गूँजती है। “घर रुका रहता है जब तक आ न जाती
कामवाली” जैसी ग़ज़ल इस वर्ग की मेहनत को मानवीय
गरिमा देती है। इसी तरह “ज़माने से औरत सतायी हुई है” और “औरत को खिलौना मत समझो” जैसी
ग़ज़लें स्त्री-समानता की ज्वाला लेकर आती हैं। कवि का यह स्त्री-विवेक उपदेशात्मक
नहीं, अनुभवजन्य है — वह देखता है कि मोरनी अब तनकर खड़ी है, और यह दृश्य समाज की चेतना में
परिवर्तन का संकेत देता है।
मिश्र की ग़ज़लों में व्यक्तिगत जीवन के खुरदरे
यथार्थ भी मौजूद हैं। “बाहर वालों से अब ख़तरा नहीं रहा / घर
वालों का मगर भरोसा नहीं रहा” या “पिता से अलग खुद की दुनिया बसायें / ये
बेटों का मन है बग़ावत नहीं है” जैसी
पंक्तियाँ घर के भीतर पनपती दरारों को बारीकी से व्यक्त करती हैं। इन शेरों में
व्यथा है, पर करुणा भी है — और यही संतुलन कवि को दार्शनिक बनाता
है।
इस संग्रह का लगभग हर तीसरा शेर सामाजिक
प्रतिरोध का साक्ष्य है। “सब सहन करता है अच्छा आदमी / रोज़ ही
मरता है अच्छा आदमी” जैसे शेर हमारी नैतिकता के टूटे आईने
को दिखाते हैं। यह वही कविता है जो व्यवस्था की जड़ता में मनुष्य की थरथराती नब्ज़
खोजती है। “परचम उठा लो हाथ में अब इनक़लाब का” में कवि की आवाज़ जनांदोलन का आह्वान
बन जाती है, और जब वह लिखते हैं “सच कहना यूँ अंगारों पर चलना होता है /
फिर भी यारो सच को सच तो कहना होता है” तो
यह ग़ज़ल पुस्तक का ही नहीं, पूरे
दौर का घोषणापत्र प्रतीत होती है।
मिश्र की ग़ज़लों में गीतात्मकता और प्रतिरोध
का अनोखा संगम है। “तुम हो तो संसार सुहाना लगता है” जैसी प्रेम-ग़ज़लों में भी संवेदना के
भीतर सामाजिक संदर्भ झलकता है। उनका प्रेम निजी होते हुए भी साझा है — जो मनुष्य को भीतर से बदलने की शक्ति
रखता है। “छोटी ही सही लेकिन अच्छी-सी ज़िन्दगी
हो” ग़ज़ल जीवन-दर्शन का संक्षिप्त सार है — यह न आसक्त है, न निराश; यह श्रम और संतोष की आस्था में विश्वास रखती है।
कवि की भाषा सहज है, किंतु उसके भीतर गंभीर विचारशक्ति
सक्रिय है। रूपकों की सादगी और ध्वनियों की किफ़ायत उसे लोकभाषा की चमक देती है।
मिश्र ‘जनवादी ग़ज़ल’ को नारा नहीं, संवेदना के विस्तार के रूप में देखते
हैं। उनके यहाँ जनवाद मनुष्य-केंद्रित है — वे
कहते हैं: “ईश्वर की पूजा से बेशक दूर रहूँ /
मानवता की मगर इबादत करता हूँ।”
डॉ. डी. एम. मिश्र की यह कृति आज की हिंदी
ग़ज़ल-परंपरा में एक मील का पत्थर कही जा सकती है। यह संग्रह बताता है कि ग़ज़ल अब
महज़ उर्दू की विधा नहीं रही; वह
भारत के सामाजिक विवेक की आवाज़ बन चुकी है। इन ग़ज़लों में विचार की आँच, भाषा की सादगी और संवेदना की सच्चाई — तीनों का त्रिवेणी-संगम है। यह पुस्तक
हर उस पाठक के लिए है जो शब्दों में आग की गरमी और दिल में करुणा की ठंडक तलाशता
है।
शिल्प और कला
डॉ. डी. एम. मिश्र की ग़ज़लों का शिल्प उनके
समकालीनों से भिन्न स्वर-व्यवस्था रचता है। उनकी ग़ज़ल में भाषा किसी नक़्क़ाशीदार
पत्थर की तरह तराशी गई है,
जहाँ हर शब्द अपनी जगह नापकर बैठाया
गया है। वे शब्दों से अर्थ नहीं, ध्वनियों
से अर्थ रचते हैं। इसलिए उनकी ग़ज़लें भावनाओं के पार जाकर लयात्मक विवेक का अनुभव
कराती हैं। मिश्र की पंक्तियाँ शब्दों के संयोजन से नहीं, उनके बीच की ख़ामोशी से बनती हैं — और यही ख़ामोशी उनके शिल्प का सबसे
बड़ा सौंदर्य है।
दुष्यंत कुमार के यहाँ ग़ज़ल का शिल्प लोकभाषा
में प्रतिरोध की संरचना के रूप में दिखता है। उनके शेर नारे की तरह उठते हैं और
जनभाषा में गूँजते हैं —
“कैसे मंज़र सामने
आने लगे हैं / गाते-गाते लोग चिल्लाने लगे हैं।” अदम गोंडवी के यहाँ यही भाषा जनसंग्राम की चेतावनी बन जाती है; वे अपने शेरों में गाँव की मिट्टी, बेबाक मुहावरों और ठेठ हक़ीक़त को बिना
सौंदर्य के आवरण के रखते हैं। इसके विपरीत, मिश्र
का शिल्प संयमित है — वे चीखते नहीं, सुनने को विवश करते हैं। उनका शेर “सच कहना यूँ अंगारों पर चलना होता है” उद्घोष नहीं, बल्कि आंतरिक गूँज की तरह उतरता है।
यही आत्मसंयम उनकी ग़ज़लों को सौंदर्य का अतिरिक्त आयाम देता है।
मिश्र की ग़ज़लों में शब्द-चयन अत्यंत सटीक और
वाक्य-विन्यास लगभग संगीतात्मक है। वे लय को मात्र ध्वनि नहीं, विचार की गति मानते हैं। उनके यहाँ
पंक्ति-लंबाई कभी शेर की आत्मा को बाधित नहीं करती। “जो रो नहीं सकता है वो गा भी नहीं सकता” जैसे शेर में ‘रो’ और ‘गा’ के
बीच का छंद नैतिक संतुलन का रूप ले लेता है। उनकी भाषा सहज दिखती है, पर उसके पीछे गहरा व्याकरण-बोध है।
प्रत्येक शेर में शब्द जैसे एक-दूसरे को देखते हैं, टकराते नहीं। यही परस्पर संयम उनके शिल्प को दुष्यंत की प्रतिरोधक
ऊर्जा और अदम की आक्रोश-भाषा से अलग बनाता है।
दुष्यंत की ग़ज़लें जहाँ तात्कालिक आवेश से
उपजती हैं, वहीं मिश्र की ग़ज़लें विचार के
गाढ़ेपन से जन्म लेती हैं। वे वाक्य में अर्थ को फैलाते नहीं, भीतर समेटते हैं। “आईना हूँ मैं भले ही टूट जाऊँ” जैसी पंक्ति में आईना प्रतीक नहीं, आत्मदर्शन की क्रिया बन जाता है। मिश्र
की भाषा अपने भीतर प्रतीक और ध्वनि दोनों को साधती है। यह संतुलन दुष्यंत की
जन-गूँज और अदम की किसान-चेतना से आगे जाकर एक बौद्धिक लोकधर्मी शैली गढ़ता है।
अदम गोंडवी की भाषा में किसान का पसीना और
ग़रीब की गंध है; वे सीधी चोट करते हैं। मिश्र वही चोट
विचार के औज़ार से करते हैं। वे आक्रोश को शिल्प में बदल देते हैं। उनके शेर में
ग़ुस्सा नहीं, धीरज है; विरोध नहीं,
साक्ष्य है। शब्दों का चयन इस तरह होता
है कि हर शेर दो अर्थों में खुलता है — एक
जो तात्कालिक है, दूसरा जो चेतना में टिकता है।
डॉ. डी. एम. मिश्र की ग़ज़लों का वाक्य-विन्यास
शास्त्रीय अनुशासन से जुड़ते हुए भी आधुनिक सहजता लिए है। उनके शेर नारे की तरह
नहीं बोलते, बल्कि मन के भीतर धीमी आँच पर पकते
हैं। दुष्यंत और अदम जहाँ शब्दों से हथियार बनाते हैं, मिश्र शब्दों से दर्पण गढ़ते हैं। उनके
यहाँ शिल्प भाव का विस्तार नहीं, आत्मा
का अनुशासन है — और यही अनुशासन उनकी ग़ज़लों को
समकालीन हिंदी जनवादी कविता में एक विशिष्ट ऊँचाई प्रदान करता है। ●
-सुशील कुमार
पुस्तक
: सच कहना यूँ अंगारों पर चलना होता है
प्रकाशक:
श्वेतवर्णा प्रकाशन, नई दिल्ली
वर्ष:
2025
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आप का लेख मेरा मार्गदर्शन करने वाला है। इसके लिए मैं आपके इस स्नेह के प्रति आभार व्यक्त करने में गौरव महसूस करता हूं। स्वीकार करें, आभार।
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