1. एक कथा काव्य: उमो सिंह की ढोलक
( अपने गाँव के एक मात्र ढोलकिया उमो सिंह की व्यथा-कथा सुनकर )
दो भैंसे की लड़ाई में
झाड़-पात के हुए निनान की तरह
टूटे-बिखरे परेशान हैं
हमारे गाँव के उमो सिंह
उमो सिंह
हमारे गाँव के एक मात्र ढोलकिया उमो सिंह
हैरान हैं, परेशान हैं
परेशान है कि आज वही लोग
उनकी ढोलक के दुशमन बन गये
जो कभी उनके दो हाथ बन
उनकी ढोलक की थापों पर
एक सूर-ताल में उठते-गिरते थे
एक ने फरमान जारी कर रखा है
कि अगर उसके दरवाजे से इस बार
फगुवा की शुरूआत नहीं हुई तो
उनकी ढोलक सहित उनको उठाकर
जलती होलिका में फेंक दिया जायेगा
दे रखी है धमकी दूसरे ने भी कि
अगर उमो सिंह उस पक्ष के लोगों के साथ मिलकर
फगुवा में ढोलक बजायेंगे
तो इस बार गाँव में खून की होली होगी
उमो सिंह
गाँव के एक मात्र ढालकिया उमो सिंह
जो अपनी एक मात्र बची-खुची ढोलक से
पूरी बस्ती को एक सूर-ताल में बाँधकर जोड़ते रहे
आज वही ढोलक उनके जी का जंजाल बन गया है
जी का जंजाल बन गया आज वही ढोलक
जिसने उमो सिंह को गाँव में सबका चहेता बनाया
लोग कहते हैं
जब उमो सिंह ढोलक बजाते हैं
तो बस्ती में दुश्मनी की सारी दीवारे ढ़ह जाती हैं
और हर कोई उनकी चौपाल पर खींचा चला आता है।
उनकी सूर-ताल में अपनी ताल मिलाने
यहाँ तक भी कहते हैं लोग कि
जब बस्ती में
लोगों की लाठियाँ आपस में टकराती हैं
तब पूरी बस्ती का दर्द फूटता है
उनकी ढोलक की थाप से...
पर आज बेचारे उमो सिंह
सीधे-सादे भोले-भाले उमो सिंह
दो पाटों के बीच
जौ-गेहूँ की तरह पीसा रहे हैं।
पीसा रहे हैं दो पाटों के बीच उमो सिंह
और हैरान परेशान सबका मुख ताकते
दौड़ रहें हैं कभी मुकून्द सिंह
तो कभी महादेव सिंह , भूलो सिंह के पास
और सबके सब हैं कि चुप्पी साधे बैठे हैं
दीवार में खूँटी पर टंगे उनकी ढोलक की तरह
चुप्पी साधे बैठे हैं अपने सूने दरवाजे पर
गाँव के सबसे बड़े बबुआन बाबू बाल मुकून्द सिंह
वे चुप हैं कि अब उनकी कोई नहीं सुनता
भूलो सिंह भी क्या करें
वे भी तंग-तंगा गये हैं गाँव की राजनीति से
भूल गये हैं किसी को टोका-टोकी करना
और महादेव सिंह तो महादेव ही हैं
पड़े हैं दरवाजे पर स्थापित
किसी शिवलिंग की तरह पथराये हुए
एक मुखिया जी थे भला-बूरा देखने-सूनने वाले
वह भी मुखियागिरी करते -करते चले गये
यह कहकर
कि अब यहाँ हर कोई अपने आपमें मुखिया है
ऐसे में गाँव के मुखिया बनने का समय नहीं रह गया अब
सच को सच
और झूठ पूरी ताकत से झूठ बोलने वाले
आम्बिका सिंह उर्फ भोथी बाबा भी
चले गये गरियाते-गरियाते यह कह कर कि
गाँव एक दिन शमशान बन जायेगा
और चौबट्टी पर कुकुर-सियार भुकेंगे
गाँव गरम है
पर चारो तरफ एक ठंड़ी चुप्पी पसरी है
कहीं अगर कुछ कोई बोल रहा है तो वह
गाँव की गोबरटोली मेें जहाँ चर्चा गरम है
अबकी बार होली में
गाँव में अच्छा रंग में भंग जमेगा
ऐसे में चुप्पी के इस गहराते सन्नाटे में
डरे सहमे उदास उमो सिंह आज आखिरी बार
ढोलक की जगह
अपनी छाती को पीट-पीटकर बजाना चाहते हैं
बजाना चाहते हैं अपनी छाती को
ढोलक की तरह पीट-पीटकर
और निकालना चाहते हैं एक ऐसा सूर-ताल
जैसा आज तक पूरे जीवन में
कभी नहीं बजाया
अब ऊब चुके हैं उमो सिंह गाँव से
ऊब चुके हैं जीवन भर
ढोलक बजा-बजाकर अपनी ढोलकियागिरी से
उन्होंने फैसला कर लिया है
अब अपने ही घर के होलिका जलाकर
डाल देंगे उसमें अपनी वह ढोलक
जो आज उनके जी का जंजाल बन गया है
और चले जायेंगे गाँव छोड़कर दूर बहुत दूर....
कभी न वापस आने के लिए।
******
2. कथा: पालकी जलाकर भात पकाते डोमना कहार की
डोमना कहार
चूल्हे के पास बैठा ताप रहा है आग
और चूल्हे पर चढ़ी हाँडी में पक रहा है भात
आग जल रही है चूल्हे में
और उसमें धू-धूकर जल रही डोमना की स्मृतियाँ
चूल्हे की आँच तेज हो रही है
और डोमना देख रहा है उसकी रौषनी में
अपनी बहुरिया का झुर्रीदार चेहरा
चमकती हुई दो आँखें भी
जिसमें दिख रहे हैं उसके अपने वो गुजरे दिन
जब आज से पचपन साल पहले
ब्याह कर साथ बिठा लाया था उसे उसी पालकी में
जिसकी लकड़ियाँ आग में झौंकती
पका रही है वह भात
वह देख रहा है चूल्हे में जलती पालकी
और याद कर रहा है वो गुजरे दिन
जब अपने बापू के साथ मिलकर वह
उसी पालकी में पालकी ढोने का काम करता था
पालकी का पऊवा जल रहा है
जल रही हैं उसके साथ उस पर खुदी नक्काशियाँ
और डोमना को याद आ रहा है उससे जुड़े सैकड़ो किस्से
वह अपनी घरवाली को
यह बताते हुए रोमांचित हो रहा है
कि उसी पालकी पर बिठा लाया था उसे
जब वह बारह वर्ष की थी
रोयी नहीं थी विदागिरी के समय
बल्कि हँस रही थी खिलखिलाकर
तब उसके पिता भी अपने भाईयों के साथ मिलकर ढोते थे पालकी
वह सुना रहा है हँस-हँसकर
रामपुर के जमींदार ठाकुर रामावतार सिंह के किस्से
कि उनकी बहुरिया इतनी मोटी थी कि चार क्या
छह कहार भी फेरा-फेरीकर लाते
पछड़ गये थे जीतपुर से रामपुर लाते
और उस पर भी बदले में मजूरी इतनी कम मिली थी
कि मन खिसिया गया था उस रोज
वह आग तापता सुना रहा है
बभनटोली के बयालिस वर्षीय विधुर पंडित दीनदयाल की वह बात
जब दान में माँगकर
एक चौदह वर्षीय यदुुवंशी कन्या को ब्याह लाये थे वे उसकी पालकी पर
याद है तब इतनी जोर-जोर से रोयी थी वह अपनी माई से लगकर
कि उछल कर गिर पड़ी थी पालकी से नीचे
तब पंडितजी दौड़कर उसे गोद उठा
बच्चे की तरह पुचकारते दूबारा बिठाये थे पालकी पर
वह बता रहा है कि कैसे एक दिन बीच रास्ते में
जंगल से गुजरते हो गयी थी रात
जब बुलाकी मंडल के बेटे की बारात के साथ
लौट रहा था पालकी लेकर
तब कैसे चोरों ने लूट लिया था
डोली रोककर बुलाकी मंडल की बहू के सारे गहने
और कैसे सब छोड़कर भाग गये थे बारात वाले
भाग गया था कैसे दुल्हा दुल्हन को छोड़कर
सब कुछ याद कर-करके सुना रहा है अपनी आपबिती
वह दिखा रहा है पालकी ढो-ढोकर कठुवाये
अपने कंधे और ठेले पड़ गयी हथेलियाँ
और दावे के साथ कह रहा है
कि किसकी दुल्हनियाँ रोयी कितनी और किसकी हँसी थी खिलखिलाकर
कौन रास्ते में क्या बतिया रहा था अपनी दुल्हनियाँ से गुपचुप
और कौन चुप रहा भर रास्ता
किसकी दुल्हनियाँ गोरी थी, किसकी काली
किसकी दुबली-पतली किसकी मोटी सबकुछ
उसे याद है कि
कैसे एक बार पालकी के झालर में फँस गयी थी
चौधरी महेन्द्र प्रताप की दुल्हनियाँ के नाक की नथिया
जिसे छुड़ाने के बहाने तिरछी नजर से देखा था वह
उनकी उस चाँद सी बहुरिया को
जिसे लेकर चौधरी साहब
दावा करते थे सीना ठोककर
कि इस इलाके के दस गाँव तक में
नहीं है किसी की ऐसी संुदर बहुरिया
यह सब याद करता वह बता रहा अपनी सरबतिया को
कि कैसे एक बार
गाँव के वैद्यजी की बेटी के कान की बाली
गिर कर रह गयी थी उसकी पालकी में
जिसे वह छुपाकर रख लेना चाहता था उसके लिये
पर उसके बापू ने डाँटकर छिन लिया था
और वापस पहुँचा दिया था वैद्यजी को
जिसके बदले पसेरी भर धान
और एक जोड़ा पियर-पियर धोती मिली थी उसके बापू को ईनाम में
याद आ रहा है उसे वह दिन भी
जब बभनटोली और गोबरटोली के बीच की लड़ाई में
उलझकर फँस गया था वह
इस बात के लिए कि एक ही लगन में हो रहे
भोला मिसिर और बोढ़न महतो के बेटे की षादी में
किसके घर जाये और किसको छोड़े!
कैसे भोला मिसिर के लोग लाठी के जोर पर
उठा ले गये थे पालकी को अपने बेटे की बारात में
और बोढ़न महतो को कंधे पर बिठाकर लाना पड़ा था अपनी बहू को
जिसको लेकर आज भी बात-बात में कूट काटते
मजाक उड़ाते हैं बभनटोली के लोग
गोबर टोली के लोगों का
उसे अब भी याद है
बबूआन टोला के बजरंगी सिंह की वो भद्दी गालियाँ
जो बिना कसूर बात-बात में दिया करते थे वो कहारों को
पालकी लेकर चलते थोड़ी सी धीमी चाल
या फिर कहीं देर तलक बैठकर ससुताने पर
आज भी अपनी पीठ पर
उनकी दोहत्थो डाँग की उस चोट को यादकर सिहर जाता है वह
जो बजरंगी सिंह ने दे मारा था उस दिन उसकी पीठ पर
जब भरी पंचायत में अपनी बिरादरी के सामने
पालकी ढुलाई का काम करने से इनकार किया था वह एक बार
उसे याद आ रहा है सबकुछ
और वह सुनाये जा रहा है लगातार
किस्से पर किस्से...
किस्से थे कि खत्म नहीं हो रहे थे
जबकि कबकि जलकर राख हो गयी पालकी
और ठंडी पड़ गयी चूल्हे की आग
और ऐसे में पता नहीं
कब गीला हो गया उधर हाँडी का भात
और इधर डोमन की आँखंे!
आज जबकि दूर-दूर तक नहीं बची है
उसके इलाके में कहीं कोई पालकी
ईंट भट्टे में ईंट पाथता डोमना कहार
देखता है जब-जब पास से गुजरती कोई बारात
और उसमें सजी-धजी कार पर बैठी
किसी की दुल्हनियाँ
तब-तब गुजरे दिनों को याद करता महसूसता है वह
अपने कंधे पर पालकी का भार
और भूल बजरंगी सिंह के दोहत्थो डाँग की चोट का दर्द
रोमांचित होता है मन ही मन
अपनी उस पालकी के मचमचाहट की वह आवाज यादकर
जो ठाकुर रामावतार के मोटकी दुल्हनियाँ के बैठते ही
फूटा था संगीत बनकर उस दिन
जब पहली-पहली बार वह उठाया था पालकी
अपने बापू के संग कंधा से कंधा मिलाकर
तब रास्ते भर सुनते डोली की मचमचाहट
पहली बार समझ पाया था वह
कि डोली के लचकने में भी होता है
कोई एक ऐसा संगीत
जिसकी लय पर थिरकते
जल्दी-जल्दी उठते हैं कहारों के पाँव
और वह तय कर लेता है
भूख की बस्ती से रोटी के गाँव तक का सफर आसानी से !
*****
3. बाँस
एक
सिर्फ लाठियाँ ही नहीं बनती बाँस से
बाँसुरी भी बनती है
यह हमने जाना
अपने पड़ोसी मित्र
राजेश शर्मा की बाँसुरी की धुन को
अक्सर सुनते-गुनते हुए
हमारी बस्ती में आज भी
जब बाँस की लाठियाँ आपस में टकराती हैं
तब पूरी बस्ती का दुख
दर्द बनकर फूटता है उसकी बाँसुरी से....
वह बाँस की बाँसुरी ही है
जिसकी सुरीली तान से
ढह जाती है बस्ती में दुश्मनी की सारी दीवारें
दो
बाँस सिर्फ बाँस भर नहीं है
इस पर टिका है बस्ती का जीवन
बस्ती की आत्मा टिकी है बाँस पर भी
घर-गाँव के छप्पर-छौवनी से लेकर
खंभा-खँूटा, खटिया-मचिया
सूप-डलिया, लाठी-पैना
सबके सब कर्जदार है बाँस के
आँगन में पड़े बाँस के खटिया की मचमचाहट
अभी भी बची है स्मृतियों में
जिसे सुनते-सुनते ऊँघते हुए सो गये
दादी की कहानियाँ के साथ ही
लोक कथाओं के सारे पात्र
और खाट के साथ ही चले गये अंतिम यात्रा पर घाट !
तीन
बाँस की झुरमुटों पर फैली माँ की साडियाँ
जब सुखकर हिलती है हवा में
तब बाँस की बँसबिट्टी के चिरैया-चिरगुन भी समझ जाते हैं
कि तुलसी-पिण्डा में पूजा का वक्त हो गया
और चले आते हैं अक्षत का दाना चुगने आँगन में
हर शाम
बाँस की झुरमुटों के पीछे
डूबते सूरज की लाली में
ढूंढ़ना अपनी प्रेयसी का चेहरा
और फिर चिड़िया चिरगुन की चहचाहट के बीच
लौटना उदास भारी मन से घर
भला कैसे भूल सकता हूँ आज भी
बाँस के मचान पर बैठ
खेतों से तोते उड़ाने की बात हो
या फिर बाँस की बैलगाड़ी पर
सपनों की गठरी लाद
शहर ले जाकर बेचने का सुख-दुख
ये सब धुंधली होती स्मृतियाँ मात्र भर नहीं है
एक संस्कृति है, परंपरा है घर-गाँव की
जो सदियों से टिकी है बाँस पर
चार
बाँस की सीढ़ियों से चढ़ते-उतरते
हमारी कई पीढ़ियाँ गुजर गई
पर बाँस है कि चला आ रहा है हमारे साथ
सदियों से पीढ़ी दर पीढ़ी
बाँस के कितने रंग रूप बदले
कितने कारोबार बदले
यह बात हमने तब जाना
जब बाजार में फैले बाँस के मेले में
बाँस के कारीगरों को
अपनी परंपरागत कारीगिरी पर
लजाते-शरमाते मुँह छुपाते देखा
बाँस के मेले में
बाँस उसका मुँह चिढ़ा रहा था या वह बाँस का
यह तो बाँस मेले के व्यापारी ही जाने
मैं तो बस उस बाँस के कारीगर की आँखों में
वह बेचैनी देख रहा था
जो बाँस के इस बाजार से निकलकर
लौटना चाह रहा था जल्दी वापस अपने गाँव
जहाँ बाँस की बँसबिट्टी में पड़ी
एक छोटी सी बाँसुरी उसका इंतजार कर रही थी।
पाँच
जब से हमारी बस्ती की सीमा के बाहर फैले
बाँस के जंगलों में घुस आया है बाजार
एक हाथ में
बाँस की वस्तुओं के बने नये-नये मॉडल
और दूसरे हाथ में आरियाँ लेकर
तब से बस्ती के कारीगर संशय में पड़े
इधर-उधर दौड़े भागे फिर रहे हैं
कि कहीं बाजार की आरियाँ
गाँव की बँसबिट्टी में छिपी
उनकी कारीगरी पर भी न चल जाये!
छह
बाँस एक है
काम अनेक हैं
डंडा घुमाओ
या झंडे लहराओ
सब में काम आते हैं बाँस
अब यह तुम पर है
कि उसपर रामनवी के झंडे लगाओ या मुहर्रम के
या फिर तिरंगा लहराओ
बाँस तो बाँस
उसका न कोई जात होता है
और न धरम
सात
बाँस घर-गाँव का आधार है
उससे जुड़ा कार्य-व्यापार हजार है
बाँस पर ही टिकी है
किसानों की किसानी
लठैतों की लठैती
और बुढ़ापे की बुढ़ौती भी
टिकी है बाँस पर ही
और तो और
वह बाँस ही है
जब अंतिम यात्रा में
सबके सब होते हैं पास
और नहीं देता कोई साथ
सिर्फ बाँस ही है
जो जाता है हमारे साथ!
*****
4. मुन्नी हाँसदा के लिए
एक -
लड़ो, मुन्नी हाँसदा ! लड़ो !
लड़ो, कि अपने हक अधिकारों के लिए लड़ो
यह मानकर लड़ो
कि यहाँ बिन लड़े कुछ भी नहीं मिलता !
लड़ो, कि लड़ने का मतलब
सिर्फ दुनिया को बदलना नहीं
दुनिया को जानना भी है
लड़ो, कि लड़ने के लिए जरूरी नहीं
हाथों में हथियार लेकर सड़कों पर उतर पड़ना
और चक्का जाम हर हल्ला बोलना
लड़ने के लिए काफी है
अपने अधिकारों के लिए तनकर खड़े हो जाना
और जबाब तलब कर पुछना
कि लगातार इतने आदिवासी मंत्री संतरी बाबजूद
हम आदिवासियों का
अबतक तक भला क्यों नहीं हुआ ?
दो -
लड़ो, कि तुम जहाँ हो वही से लड़ो
लड़ो, कि लड़ना ही
तुम्हारे जिन्दा रहने का सबूत है
लड़ो, कि तुम्हारे पूर्वज भी लड़ते रहे आजीवन
अपने हक अधिकारों की रक्षा के लिए
उनकी अधूरी लड़ाईयों को
पूरा करने के लिए लड़ो
लड़ो, उनके सपनों को पूरा करने के लिए लड़ो !
लड़ो, कि दुनिया को यह बताने के लिए लड़ो
कि तुम्हारी लड़ाई
उन राजा महाराजाओं और जमींदारों की तरह
व्यक्तिगत जागीरदारी की रक्षा के लिए नहीं
बल्कि सामुदायिक हित अधिकारों की रक्षा और
अपनी आदिवासीयत की पहचान के लिए है।
तीन -
लड़ो, कि न सिर्फ बाहरी दुनिया से लड़ो
बल्कि अपने आपसे भी लड़ो
और अपने ही बीच के उन लोगों से भी
जो तुम्हारे अपने होकर भी अपने नहीं हैं
बल्कि तुम्हारी भाषा में बोलते
तुम्हारे अपने होने का भरम दे रहे हैं।
लड़ो, कि लड़ना भी
जीवन जीने की एक कला है
जो सबको नहीं आती
लड़ो, कि लड़ना सिर्फ
व्यवस्था को बदलने की मुहिम भर नहीं है मुन्नी हाँसदा
बल्कि चुनौतियों को चिन्हित कर
उन अवसरों को पहचानना भी है
जो तुम्हें तुम्हारे जंगल पहाडों़ से निकालकर
मुख्यधारा की उस सड़क तक ले जा सकती है
जो तुम्हारे गाँव के बगल से होकर संसद तक जाती है
चार -
लड़ो, कि उन सवालों के जबाव के लिए लड़ो
जिसके लिए सदियों से लड़ते रहे तुम्हारे पूर्वज
और आज भी वे सवाल अनुत्तरित तुम्हारे सामने खड़े हैं
लड़ो, कि अब तक दूसरे ही लड़ते रहे
तुम्हारे नाम पर तुम्हारे हिस्से की लड़ाई
और तुम्हारे सवालों के साथ जोड़कर अपने सवाल
उछालते रहे मुद्दो
जैसे वो उनका नहीं तुम्हारा हो
और मिलते ही माकूल जबाव
साधते रहे तुम्हारे हित की आड़ में अपना हित
लड़ो, कि लड़ने के लिए जरूरी नहीं
किसी विशेष समय, स्थान या अवसर का इंतजार
लड़ने के लिए काफी है
अपने आसपास चल रही गतिविधियों में
हस्तक्षेप करना पर याद रहे, सोच साकारात्मक हो !
पाँच -
लड़ो कि लड़ाई कोई हथियार नहीं है
एक ‘औजार’ भी है
व्यवस्था के ढीले पड़ गये पुर्जो को
समय-समय पर कसने के लिए
लड़ो, कि अंधे-बहरों की तरह मत लड़ो
पूरे होशो-हवास में
एक निश्चित रीति-नीति के तहत लड़ो
अंधेरों से नहीं
अंधेरा कायम करने वालों से लड़ो
मत भूलो, कि कभी-कभी अच्छे-अच्छे लड़ने वाले
जुनून में लड़ते-लड़ते यह भूल जाते हैं
कि वे गड्ढा खोदने वालों से लड़ रहे हैं, या गड्ढे से
छः -
लड़ो, कि यह मानकर लड़ो
कि लड़ने के लिए कोई मौसम नहीं आता
कोई तबियत नहीं बनती
लड़ने की हजारो गुंजाइषें
दिख जायेंगी तुम्हें तुम्हारे आसपास
अगर व्यक्तिगत हित से ऊपर उठकर
जनहित के मुद्दों पर लड़ना चाहो तुम
लड़ो, कि लड़ने की नीयत से मत लड़ो
लड़ने की समझ के साथ लड़ो
इसलिए लड़ो, कि लड़़ना जरूरी है
आज की इस व्यवस्था में
अपनी पहचान के साथ जीने के लिए
सात -
लड़ो, कि तुमसे पहले भी कोई लड़ा है तुम्हारी खातिर
जिसकी बदौलत सलामत हैं
तुम्हारे पाँव के नीचे की जमीन
और याद रखो कि तुम्हारे बाद भी कोई लड़ेगा
तुम्हारी अधूरी लड़ाईयों को पूरा करने!
लड़ो, कि दिखावे के लिए मत लड़ो
कि तुम लड़ाई में शामिल हो
बल्कि यह सोचकर लड़ो,
कि कोई तुम्हें ल नहीं ड़ता देख
मुर्दों की गिनती में शामिल कर सकता है तुम्हें
आठ -
लड़ो, कि उस जगह पहुँचकर
लड़ने के बारे में मत सोचो
जहाँ पहुँचकर तुम्हारी तनी मुट्ठियाँ
याचना में फैल जाती हैं
और चीख ............
खुदगर्जी की भाषा बनकर घिघयाने लगती है
तुम जहाँ हो, जिस हाल में, जिसके साथ हो
वहीं से, उस हाल में, उसी के साथ मिलकर लड़ो
लड़ो, कि तुम्हें लड़कर गढ़नी है
लड़ाई की एक ऐसी परिभाषा
जो अब तक गढ़ी नहीं गयी
इस लक्ष्य के साथ लड़ो
कि कोई लड़ाई तभी सार्थक होती है
जब एक निष्चित मुकाम पर पहुँचकर
किसी समस्या का समाधान ढूंढ़ लाती है
नौ -
लड़ो, पर इस मुगालते में मत रहो
कि लड़कर तुम एक दिन दुनिया को बदल दोगी
बल्कि व्यवस्था को जानने-समझने
और सत्ता के आर-पार देखने के लिए लड़ो
लड़ो, कि वह लड़ाई ही है
जो तुम्हें वक्त पर
दोस्तों व दुश्मनों की पहचान करना सीखाती है
और वह दृष्टि देती है जहाँ से हम
दुनिया को एक नये सिरे से देखना शुरू करते हैं !
लड़ो, कि लड़ना
दुनिया को एक नये सिरे से देखना है !
............................................................................
संक्षिप्त परिचय
अशोक सिंह
ऽ जन्म तिथि ः 8 फरवरी 1971 (दुमका, झारखण्ड)
ऽ शिक्षा ः स्नातक (हिन्दी)
ऽ अभिरूचि ः साहित्य, रंगमंच, रेखांकन, शोध-अध्ययन, पत्रकारिता और सामाजिक कार्य।
ऽ प्रकाशन ः देश के विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं: वागर्थ, साक्षात्कार, नया ज्ञानोदय कथादेश, समकालीन भारतीय साहित्य, वसुधा, अक्षर पर्व, आजकल, साक्ष्य, दोआबा, कथन, उन्नयन, इन्द्रप्रस्थ भारती, साहित्य अमृत, अक्षरा, मधुमती, अन्यथा, कथाबिम्ब, विपासा, कृति ओर, यु.आम आदमी, लोक गंगा, आकंठ, अकार, अरावली उद्घोष, आदिवासी सत्ता, समकालीन सृजन, जनपथ परिंदे एवं परिकथा आदि में प्रमुखता से रचनाएँ प्रकाशित एवं आकाशवाणी व दूरदर्शन से प्रसारित।
साथ ही हिन्दुस्तान, दैनिक जागरण, दैनिक भास्कर, प्रभात खबर, इंडियन पंच, आज, जनसत्ता, द हिन्दू, राष्ट्रीय सहारा, राँची एक्सप्रेस, बि.ऑबर्जवर, श्वेतपत्र, दुमका दर्पण, अपनी राँची, 7डेज आदि दैनिक साप्ताहिक समाचार पत्रों में नियमित रिपोर्ट, फीचर एवं शोध आलेख प्रकाशित। विशेषकर आदिवासी मुद्दों और उसके जीवन एवं संस्कृति पर शोध कार्य।
ऽ प्रकाशित पुस्तकें: ‘कई-कई बार होता है प्रेम’, ‘असहमति में उठे हाथ’, ‘समकाल की आवाज: अशोक सिंह की चयनित कविताएँ’। तीन कविता संग्रह के साथ-साथ संताली कविताओं के अनुवाद की दो अनुदित पुस्तकें भारतीय ज्ञानपीठ दिल्ली से प्रकाशित ष्नगाड़े की तरह बजते हैं शब्दʼ एवं रमणिका फाउण्डेशन दिल्ली से प्रकाशित ष्अपने घर की तलाश मेंʼ। आदिवासी लोक नृत्य पर झारखण्ड सरकार के कला संस्कृति विभाग से ष्जंगल गाँव, थिरकते पाँवʼ नामक पुस्तिका का प्रकाशन।
ऽ कविताओं का अनुवाद: कविताओें का अंग्रेजी, बंगला, मारठी, उड़िया, संताली, भोजपुरी पंजाबी, नेपाली, बोडो, असमिया आदि भाषाओं मेे अनुवाद।
ऽ पुरस्कार एवं सम्मान: साहित्यिक, सांस्कृतिक गतिविधियों एवं सामाजिक कार्यों में उत्कृष्ट योगदान के लिए कई संस्थानों द्वारा पुरस्कृत एवं सम्मानित।
ऽ वर्ष 1995 में बिहार राज्य साक्षरता मिशन प्राधिकरण पटना से साक्षरता नाट्य लेखन प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार से सम्मानित।
ऽ वर्ष 2007 में डेवलपमेंट कम्युनिकेशन नेटवर्क चरखा दिल्ली से ग्रासरूट पत्रकारिता के लिए पुरस्कृत।
ऽ वर्ष 2008 में एन.एफ.आई. दिल्ली से शोध पत्रकारिता के लिए नेशनल मीडिया फेलोशिप अवार्ड से सम्मानित।
ऽ झारखण्ड सरकार के कला संस्कृति खेलकूद एवं युवा कार्य विभाग से कई बार सांस्कृतिक शोध अध्ययन हेतु रिसर्च फेलोशिप।
ऽ झारखण्ड सरकार के सूचना एवं जनसम्पर्क विभाग राँची से वर्ष 2012-13 में शोध पत्रकारिता के लिए झारखण्ड मीडिया फेलोशिप ।
ऽ कविता के लिए सृजन लोक कविता सम्मान एवं सतीश स्मृति सम्मान।
ऽ समीक्षा के लिए विजय देव नारायाण शाही स्मृति सम्मान।
ऽ अनुवाद के लिए जस्टिस शारदा चरण मित्र स्मृति भाषा सेतु सम्मान।
ऽ प्रभात खबर की ओर से दुमका गौरव सम्मान: 2025
ऽ सम्प्रति ः झारखण्ड सरकार के स्कूली शिक्षा एवं साक्षरता .विभाग के तहत जिला साक्षरता समिति दुमका (झारखण्ड) में जिला कार्यक्रम प्रबंधक के पद पर कार्यरत एवं एक स्वयंसेवी संस्था का संचालन। साथ-साथ स्वतंत्र पत्रकारिता।
ऽ सम्पर्क: जनमत शोध संस्थान
पुराना दुमका, केवटपाड़ा
दुमका-814101 (झारखण्ड)
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