* swaminathan elayaraja स्वामीनाथन इलयरजा रचित एक तैल - चित्र ( पेंटिंग ) को देखकर लिखी गई यह कविता उन्हीं को सादर समर्पित है -
कितनी भोली
और अनजान हो तुम फूलमुनी
इस धरती पर कि
वायुयान को
एक चील समझती हो
और रेलगाड़ी पर
कभी बैठने के
सपने देखती हो
सूरज रोज़
गुम्मापहाड़* के पीछे से उगता है
और बाँसलोय* नदी की
कोख़ में समा जाता है
हर साँझ तुम्हारे
लिये
तुम्हारे लिये
पृथ्वी जब से बनी,
कच्छप अवतार के
पीठ पर या शेषनाग के
फन पर ठहरी हुई है
दुमका शहर अब भी
तुम्हारी पहुँच से
बहुत दूर है फूलमुनी
इतना भी नहीं जानती कि
तुम्हारे गाँव से
बहुत ही बड़ी होगी यह दुनिया !
बस नदी पार...
जंगल से क्षितिज तक
जितनी देखती हो फैली हुई धरती
जो आसमान से
जा मिलती है
वही तक समझती हो कि
है यह दुनिया
जिसमें अपने गाँव सरीखे
और कई गाँव होंगे
रतजगी कर नित्य
केन्दु-पत्ते के
पत्तल
दतुवन के मुठ्ठे
बाँस की
टोकरियाँ
बनाती हो
हर मंगल-सनीचर को
नदी पार हाट जाती हो
जब पूरा गाँव निढ़ाल होता है नींद में -
बहुत भोर में -
मुर्गा-बाँग से पहले ही
उठ-पुठ कर
जंगल चल देती हो -
महुआ बीनती हो
लकड़ी चुनती हो
घास का बोझा बनाती हो
मन ही मन
मगन हो कोई
प्रेमगीत गुनगुनाती हो
और वंदना-परब के आने की
प्रतीक्षा करती हो ...
"आयेगा
सुकल बेसरा गाँव
असाम से कमाकर
तुम्हारे लिये नई साड़ी
ब्लाउज के कटपीस
और रोल-गोल्ड* के
सुन्दर-सुन्दर हार ,
रंग-बिरंगे बाले लेकर"
[साभार पेन्टिंग-
swaminathan elayaraja स्वामीनाथन
इलयरजा ... ]
हाट-बाट से थककर
जड़ी-बूटी, कंद-मूल-महुआ-दतुवन सब
बेच-बिकन कर
दिनभर की थकान के बाद
नहा-धोकर
जलखई कर
जब सज-धजकर
खाली टोकरी पर हाथ धर
दलान की सिल पर
बैठती हो सुसताने
तो
रोज साँझ डूबने तक
अपने पिया के बारे में
ही
चिंतामगन रहती हो -
-“कि इस बार
उरिन हो जायेगा तुम्हारा पति
गाँव के रामनरेश भगत के कर्ज से
तुम्हारी चांदी की माँगटीका, हँसूली
फिर लौटा लेगा तुम्हारा सुकल महाजन से
तुम्हारी गईया
फिर वापस गोहाल में पागुर करेगी
और तुम्हारा छोटका
जरूर नाम लिखा लेगा इस बार स्कूल में
फिर जाओगी
बापू को देखने नदी पार
पहाड़ के दक्षिण
बीस कोस
पैदल
अपनी माँ के घर स्वामी संग
परब के कुछ उपहार लेकर”
पर सिहर उठता है तुम्हारा मन
यह सोचकर कि
कई महीने हो गये नैहर गये हुए -
पता नहीं...
खाँस-खाँस कर बापू का
बुरा हाल हो रहा होगा
माई भी कुहरती होगी
गोहाल में गायें फँसी होगी गोबर से
और छोटकी पर नज़र गड़ाये होगा
रामजस सिंह का निठल्ला बेटा कन्हैया
फूलमनी ! देखता
हूँ,
धरती पर तुम
निष्पाप-निश्छल नारी का
एक सुंदर रूप हो
ममता और प्रेम की घनीभूत पीड़ा
हो
तुम्हारे भीतर प्रेम की अविरल
नदी बहती है
और विरह की अगन जलती है
सच और सपने की आँख-मिचौनी के
बीच
अपने पति के लौटने की चिर–आशा लिये
बिछाती हो नित्य पलकें अपनी
जिसमें ज्वार के उफान के पहले की
सागर सी थमी हुई
निस्तब्धता होती है
पर हर सांझ तुम्हारी यादों को
विकल रात में बदल देती है
जब करवट लेता है समय
अगली सुबह के लिये
पता नहीं किस दिन
तुम्हारे अंतस की चढ़ी हुई नदी में
बाढ़ आ जाय
और तुम्हारे सपनों का
घरौंदा
बहकर उनमें किसी
सुनसान टीले के
ठौर लग जाय ?
गुम्मापहाड़*
= दुमका का एक पहाड़ , बाँसलोय*=
पाकुड़ और दुमका को विभक्त करती एक नदी।


kavitaa bhi achchhi likhi hai..
जवाब देंहटाएंaur painting kaa to kyaa hi kahnaa...
kamaaaaaal................
ek ek shabd mein phulmani sajiv hai...
जवाब देंहटाएंभाई सुशील जी, आपने फूलमुनी की संघर्षकथा को बहुत ही खूबसूरती से कविता में पिरो दिया है…एक उत्कृष्ट कविता के लिए बधाई !
जवाब देंहटाएंबहा देने वाली रचना...
जवाब देंहटाएंऔर क्या कहूँ....शब्द साथ नहीं दे रहे...
फुलमुनी को सजीव कर दिया आपने आपकी लेखनी को नमन और आपका आभार
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दरता से पूरी गाथा कविता में बुनी है...बधाई.
जवाब देंहटाएंSUNDAR SHABDON MEIN RACHEE - BASE MARSPARSHEE BHAAV !
जवाब देंहटाएंKYAA BAAT HAI !!