हृदय भी मेरा हाथ है

Sushil Kumar
5



इस पन आकर मुझे
इलहाम हुआ कि
हृदय भी एक हाथ था मेरा
अरसे से मेरी पीठ से बँधा
फ़िजूल बंधनों से नधा
हृदय हां, अब भी
एक हाथ है मेरा
मुझ आँख के अंधे की
      लाठी
इस अंधेर दुनिया के भटकन में
और देखो, वह
बुला रहा है मुझे
और तुम्हें भी
उसकी आवाज़ गौ़र से सुनो
इस तन-तंबूरे में

कह रहा है कोई
सच्ची बात
हित की बात
ओह, सुनी तुमने
पहले कभी
इतनी भली बात !
उसकी टूटन
और नहीं सहूंगा
अक्षर-अक्षर
हृदय के कहन का
लोक लूंगा !
इस राह चलते
मन की डींगे
खूब सुनता आया हूं, अब
अपने हृदय को भी
हाँक लूंगा
इस यात्रा में
हां,..हृदय को भी
अपने साथ लूंगा।

एक टिप्पणी भेजें

5 टिप्पणियाँ

टिप्पणी-प्रकोष्ठ में आपका स्वागत है! रचनाओं पर आपकी गंभीर और समालोचनात्मक टिप्पणियाँ मुझे बेहतर कार्य करने की प्रेरणा देती हैं। अत: कृप्या बेबाक़ी से अपनी राय रखें...

एक टिप्पणी भेजें

#buttons=(Ok, Go it!) #days=(20)

Our website uses cookies to enhance your experience. Check Now
Ok, Go it!