(अपने भूले - बिसरे साथियों को याद करते हुए )
हमारी आँखों में तुम थे तुम्हारी आँखों में हम
हमसब की आँखों में ढेर-सारे सपने थे
सपनों के सफेद पंख थे
मन का खुला बितान था
और कुलांचे भर उड़ने की उसमें चुलबुली इच्छाएँ
सोचना सब कुछ इतना आसान था कि
कुछ भी करने को उद्धत हो जाते थे हम एक-दूसरे की खातिर
जेबें खाली थीं अपनी पर हृदय संतोष से भरा था
फटेहाली कम न थी फिर भी मस्तमौला थे बावरे थे
और कई उलझनों के बावजूद लगभग निश्चिंत-से रहते थे
आज न तुम हो मेरे सामने , न हमारे वे सपने
लानतों से भरे सामान हैं, जेबें भरी-पूरी हैं अपनी
पर न रंग है कोई न जज्बा
न वह उमंग न उड़ान
अपने-अपने हिस्से का आकाश ढोते हुए
अपनी-अपनी दुनिया में कैद
एक ही मुहल्ले एक ही गली में
हम एक-दूसरे की पीठ बन गए हैं
सोचता हूँ आदमी बनने के गणित में
अपने जीवन का भूगोल कितना बदल लिया हमने |

हमारी आँखों में तुम थे तुम्हारी आँखों में हम
हमसब की आँखों में ढेर-सारे सपने थे
सपनों के सफेद पंख थे
मन का खुला बितान था
और कुलांचे भर उड़ने की उसमें चुलबुली इच्छाएँ
सोचना सब कुछ इतना आसान था कि
कुछ भी करने को उद्धत हो जाते थे हम एक-दूसरे की खातिर
जेबें खाली थीं अपनी पर हृदय संतोष से भरा था
फटेहाली कम न थी फिर भी मस्तमौला थे बावरे थे
और कई उलझनों के बावजूद लगभग निश्चिंत-से रहते थे
आज न तुम हो मेरे सामने , न हमारे वे सपने
लानतों से भरे सामान हैं, जेबें भरी-पूरी हैं अपनी
पर न रंग है कोई न जज्बा
न वह उमंग न उड़ान
अपने-अपने हिस्से का आकाश ढोते हुए
अपनी-अपनी दुनिया में कैद
एक ही मुहल्ले एक ही गली में
हम एक-दूसरे की पीठ बन गए हैं
सोचता हूँ आदमी बनने के गणित में
अपने जीवन का भूगोल कितना बदल लिया हमने |

अपने-अपने हिस्से का आकाश ढोते हुए
जवाब देंहटाएंअपनी-अपनी दुनिया में कैद
एक ही मुहल्ले एक ही गली में
हम एक-दूसरे की पीठ बन गए हैं
सोचता हूँ आदमी बनने के गणित में
अपने जीवन का भूगोल कितना बदल लिया हमने |
सच कहा
भाई सुशील जी, आपकी कोई कविता बहुत दिनों बाद मैं पढ़ पाया। यह कविता अपनी सहजता में असाधारण है। बधाई !
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर रचना!
जवाब देंहटाएंईश्वर इन आँखों को सलामत रखे!
बहुत उम्दा रचना!!
जवाब देंहटाएंसोचता हूँ आदमी बनने के गणित में
जवाब देंहटाएंअपने जीवन का भूगोल कितना बदल लिया हमने |
बेहतरीन प्रस्तुति.
बहुत ही सुंदर रचना |
जवाब देंहटाएंनई पोस्ट:- वो औरत
सपनों के सफेद पंख थे
जवाब देंहटाएंमन का खुला बितान था
और कुलांचे भर उड़ने की उसमें चुलबुली इच्छाएँ
सोचना सब कुछ इतना आसान था कि
कुछ भी करने को उद्धत हो जाते थे हम एक-दूसरे की खातिर....उन पंखों के साथ मन का खुला बितान आज भी चाह में है
एक अहसास जगाने में सक्षम है आपकी कविता। सचमुच में शब्द सक्रिय है जो अम आदमी की जेबें भी देख लेते हैं और सपने भी देख लेते हैं। बधाई। किशोर कुमार जैन गुवाहाटी असम
जवाब देंहटाएंबेहतरीन भावाभिव्यक्ति..
जवाब देंहटाएं:-)
धन्यवाद आप सबों का |
जवाब देंहटाएंhttp://vyakhyaa.blogspot.in/2012/10/blog-post_9.html
जवाब देंहटाएंdhanyavaad rashmi ji
जवाब देंहटाएंसोचता हूँ आदमी बनने के गणित में
जवाब देंहटाएंअपने जीवन का भूगोल कितना बदल लिया हमने |
सच कहा |
बहुत अच्छी लगी आपकी यह कविता !
सादर
इला
aadarneeya susheel sir
जवाब देंहटाएंnamaskar
aapkee rachanaaein hamesha padhatee hun.behad sahaj par bahut bhaavpurna hote hain.
shukriya