पर्यावरण में हिंदी कविता का दखल : डॉ डी एम मिश्र

Sushil Kumar
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हमारे समय के महत्वपूर्ण कवि -आलोचक सुशील कुमार की पुस्तक " बाँसलोई में बहत्तर ॠतु ’’ “ हिंद युग्म ” प्रकाशन से 04 जुलाई 2025 को प्रकाशित हुई है।
      276 पृष्ठों वाली, देखने में अत्यंत आकर्षक यह पुस्तक वर्तमान की सबसे ज़रूरी और समसामयिक विषय “ पर्यावरणीय संचेतना” पर केन्द्रित है। यह अपने आप में एक दस्तावेज़ की तरह है, या यूँ कहें कि पर्यावरण पर यह एक विशाल शोध-पत्र है। शोध -पत्र इसलिए कि इसमें हिंदी कविता की पर्यावरणीय सर्वकालिक उपस्थिति दर्ज़ हुई है।    
         भक्ति काल में कबीर ,सूर , तुलसी ,रैदास , नानक तो रीतिकाल में सेनापति , पद्माकर आदि की रचनाओं का जिक्र भी बहुलता से मिलता है । हिंदी साहित्य के 59 समकालीन कवियों और कुछ नामचीन शायरों की पर्यावरणीय रचनाओं के द्वारा भी इस पुस्तक के बहाने सुशील कुमार ने उनके काव्यजगत से परिचित कराने का प्रयास किया है और पर्यावरण में उनके साहित्यिक हस्तक्षेप को रेखांकित करने का प्रयास किया है। इतना ही नहीं, प्राय: हरेक कवि - शायर की कविता की व्याख्या के साथ -साथ उनकी तस्वीर, मेल और फोन नंबर भी इस पुस्तक में सूचीबद्ध किया गया है जो पुस्तक को अनुपम बनाता है।  
       यह अभिनव प्रयोग उनकी नवीन सोच और समझ को दर्शाता है। इन कवियों में कवि केदार नाथ सिंह , कुॅंवर नारायण , मंगलेश डबराल , नरेश सक्सेना , बशीर बद्र , दिविक रमेश ,शम्भु बादल,कौशल किशोर , स्वप्निल श्रीवास्तव, राम कुमार कृषक, डी एम मिश्र जैसे जनता के पक्षधर रचनाकार शामिल हैं। इन सभी कवियों और शायरों की रचनाओं की पर्यावरणीय दृष्टि से खॅंगालना अपने आप में अत्यंत श्रमसाध्य और दुष्कर कार्य था, जो श्री कुमार ने संभव किया है। 
         पुस्तक को सुविधाजनक बनाने के लिए कवि ने इसे पहले दो खण्डों में विभक्त किया है। प्रथम खंड में ऊपर वर्णित कवियों की पर्यावरणीय कविताओं को टीका के साथ प्रस्तुत किया है तो उत्तर खंड में कवि ने खुद की 64 पर्यावरणीय कविताओं को चार सर्गों में बाँटकर प्रस्तुत किया है , जिनमें 14 कविताएँ -“ पहाड़ में सुरंग ” , 12 कविताएँ – “ लौटूं फिर हरियाली पर ” , 10 कविताएँ - “ दरिया का मर्सिया ” और 28 कविताएँ –“ हरिया गा रहा तराई में ” शीर्षक के अंतर्गत हैं |   
         हम कह सकते हैं कि इसके पहले किसी और हिंदी साहित्यकार के यहाँ पर्यावरण पर इतनी कविताएं एक साथ एक पुस्तक में शायद ही मिले!        
        यह कहने में भी मुझे संकोच नहीं कि सुशील कुमार के स्थान पर कोई अन्य कवि होता तो केवल अपनी ही 64 कविताओं की पुस्तक ला सकता था । लेकिन सुशील कुमार ऐसे रचनाकार हैं जो सबको साथ लेकर चलने के संकल्प से प्रतिबद्ध लोकतांत्रिक सोच में विश्वास रखते हैं।
          इस पुस्तक का शीर्षक भी बिल्कुल नया और चौंकाने वाला है -’’ बाँसलोई में बहत्तर ॠतु ’’। लेकिन पुस्तक को जब मैंने पढ़ना शुरू किया और इस शीर्षक की कविता पर पहुँचा, तब जाकर इसकी अर्थवत्ता समझ में आयी और इसके अनेक अभिप्राय खुलने लगे। 
        संथाल परगना में बाँसलोई नाम की नदी प्रवहमान है , जिसको केंद्र में रखकर प्रकृति, मानव जीवन, और सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों का सजीव चित्रण कवि ने किया है-
“ एक रजस्वला नदी हो तुम / नाम तुम्हारा बाँसलोई है ! "
     कवि ने नदी को एक रजस्वला नारी के रूप में चित्रित किया है, जो चंचल, जीवनदायिनी, और परिवर्तनशील है। "रजस्वला" शब्द नदी की उर्वरता, जीवन - शक्ति और सृजनात्मकता को दर्शाता है। यहाँ कवि ने कमाल का रूपक गढ़ा है! यह नदी केवल जल का प्रवाह नहीं, बल्कि जीवन, संस्कृति और प्रकृति का प्रतीक है। यहाॅं प्रकृति के प्रति मानवीय क्रूरता और मानव की निर्भरता दोनों ही बातें दिखाई देती हैं। मछलियाँ नदी में आती हैं, लेकिन पत्थरों की चोट से या मछुआरों के जाल में फँसकर जीवन खो देती हैं। यह प्रकृति और मानव के बीच संघर्ष और संतुलन को दर्शाता है।
          यह कविता प्रकृति और मानव के बीच गहरे संबंध, आदिवासी जीवन की कठिनाइयों और मौसमों के बदलते रंगों को दर्शाती है।
      कवि आगे कहता है कि "बाँस के झाड़-जंगलों से निकली हो / रेत ही रेत है तुम्हारे गर्भ में / काईदार शैलों से सजी हो":
      नदी का उद्गम बाँस के झुरमुटों से हुआ है, जो इस क्षेत्र की प्राकृतिक विशेषता को उजागर करता है।
       कवि आगे कहता है -"इतनी चंचला, आवेगमयी होती हो / आषाढ़ में तुम कि, / कोई नौकायन नहीं कर सकता":
       बरसात में नदी का उग्र रूप नौकायन को असंभव बनाता है। यह नदी की अप्रत्याशितता और शक्ति को दर्शाता है। कविता में जंगल, पहाड़, काईदार शैल, रेत, और आदिवासी जीवन का सजीव चित्रण है। आदिवासी महिलाओं के श्रम और कष्ट का मार्मिक वर्णन पाठक में करुणा और सहानुभूति जगाता है।
      "बाँसलोई में बहत्तर ऋतु" की कविताएँ इसलिए विशेष हैं क्योंकि ये कविताएँ हमें प्रकृति की सुंदरता और कठोरता को आदिवासी जीवन की वास्तविकता के साथ जोड़ती हैं। ये नदी को केवल एक भौगोलिक इकाई नहीं, बल्कि जीवन, संस्कृति, और संघर्ष का प्रतीक बनाती हैं । कविता प्रकृति के प्रति सम्मान, आदिवासी समुदाय की मेहनत, और आधुनिकता के प्रभाव को संवेदनशीलता के साथ प्रस्तुत करती है।
      इस पुस्तक की सभी कविताएँ - सहज और पर्यावरणीय मौलिक सोच के गर्भ से उत्पन्न हैं, जो पर्यावरणीय विषयक जिम्मेदारी का निर्वहन कराती हैं | पहाड़ी लडकियाँ, पहाड़ पर भोर , जंगल चुप है, गमले का फूल, बिन पानी सब सून, दियारा में रेत होती ज़िन्दगी, थकी हारी गंगा आदि ऐसी ही अनेक कविताएं हैं जो मार्मिक हैं और पर्यावरण को बचाने के बारे में बहुत कुछ सोचने के लिए विवश करती हैं।
     कविता की भाषा सरल, लेकिन गहरी और अर्थगर्भी है, जिसमें स्थानीय ("उपलों", "कठौती" इत्यादि अनेक ) शब्दावलियों और प्राकृतिक बिंबों का सुंदर उपयोग हुआ है।"

समीक्षित पुस्तक -
बाॅंसलोई में बहत्तर ॠतु
समीक्षक - डॉ डी एम मिश्र, वरिष्ठ कवि -ग़ज़लगो
प्रकाशक - हिंद युग्म, नोएडा
कवि - सुशील कुमार 
संस्करण -2025
मूल्य -299/


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